ब्रिटिश काल में भारतीय कारोबारियों का पहला संगठन कब बना?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 11/9/2021

स्वदेशी कपास उद्योग के पतन से हथकरघा उद्योग में काम करने वाले भारतीय कारीगर बड़ी संख्या में बेरोज़गार हुए। उनके पास भूमिहीन मज़दूरों के रूप में काम करने के अलावा विकल्प नहीं बचा। अंग्रेज बुनकरों को भी नुकसान हुआ। पर उन्हें लंकाशायर के मशीनी कपड़ा उद्योग में काम मिल गया। इस समय ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति चल रही थी। उसके असर में पूँजीवादी ताक़तें भारत पहुँच चुकी थीं। वे यहाँ व्यवसायी मध्यवर्ग को प्रोत्साहित कर रही थीं, जो आगे भारतीय उद्योग की नींव डालने वाला था। 

हालाँकि इससे पहले भारत से जुड़े बाहरी व्यावसायिक परिदृश्य में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। इसके दो कारण थे। इनमें एक तो ये कि कंपनी ने 1824 के बाद से अपना निवेश भारत से निकालना शुरू कर दिया था। यह सालाना 20 लाख पाउंड तक होता था। दूसरा कारण था 1830 की आर्थिक मंदी। इससे उस दौर में कई ‘एजेंसी हाउस’ ढह गए और पूँजी की कमी पड़ गई। नतीज़े में वस्तु-विनिमय की अस्थिर, जटिल व्यवस्था सामने आई। जैसे- मैनचेस्टर के कपड़ों आदि को अगली तारीख़ों वाले बिलों पर उधारी में ख़रीदा जाने लगा। इसके बाद कलकत्ता या भारत के अन्य हिस्सों में इन उत्पादों को बेचा जाता। इस तरह मिली रकम से भारतीय उत्पाद खरीदे जाते। उन्हें इंग्लैंड ले जाकर बेचा जाता। उससे जो कमाई होती, उससे पिछला बकाया चुकाया जाता। इसके बाद फिर वही क्रम चलता। बहरहाल, एजेंसी हाउस बंद हुए तो कई बैंक स्थापित किए गए। और अंतत: जब सोने-चाँदी की कमी होने लगी तो कागज की मुद्रा का चलन शुरू हुआ। इनके जरिए आर्थिक गतिविधियाँ जारी रहीं। उनसे भारतीय मध्यवर्ग को लाभ भी मिलता रहा।

ब्रिटिश व्यावसायिक तौर-तरीकों से जिन्होंने लाभ उठाया, उनमें बंगाल के हिंदु सबसे पहले थे। बम्बई का पारसी समुदाय भी पीछे नहीं था। इस बाबत 1813 में विलियम मिलबर्न ने लिखा था, “पारसी सही मायने में यूरोपियनों से ठीक पीछे हैं। वे सक्रिय हैं। उद्यमी और चतुर भी। उन्हें स्थानीय जानकारियाँ भी खूब हैँ। इनमें से कई तो बहुत दौलतमंद हैं। एजेंसी हाउसों की परिकल्पना के मूल में दरअसल, पारसी व्यापारी ही रहे। वे यूरोपीय कारोबारियों के मध्यस्थ बन चुके हैं। ख़ुद भी अच्छा कारोबार कर रहे हैं।” वैसे, 1813 के बाद भारत में कंपनी की व्यावसायिक गतिविधियाँ काफ़ी कम हो गई थीं। फिर 1833 के बाद देश के भीतर एक से दूसरी जगह उत्पादों को लाने-ले जाने पर लगने वाला शुल्क भी धीरे-धीरे ख़त्म कर दिया गया। कई तरह निर्यात शुल्क हटा लिए गए। भारतीय बंदरगाहों में प्रवेश करने पर विदेशी जहाजों को पहले दोहरा शुल्क देना होता था। वह भी 1848 में ख़त्म कर दिया गया। इससे निजी व्यापार का विस्तार हुआ। भारतीयों के व्यावसायिक संगठनों को भी प्रोत्साहन मिला।

जिस हिसाब से ब्रिटिश समुदाय के कारोबारी बढ़े, उसी तेजी से भारतीय समुदाय में भी। यह समुदाय अब भारत ही नहीं ब्रिटेन में भी शासन-प्रशासन पर दबाव बनाने लगा था। व्यापारियों के संगठन स्थापित हो चुके थे। ‘कलकत्ता व्यापार संघ’ ऐसा पहला संगठन था, जिसकी 1830 में स्थापना हुई। इसके चार साल बाद ‘कलकत्ता चैंबर ऑफ कॉमर्स’ बना। इन संगठनों ने भारत सरकार पर दबाव बनाया कि वह परिवहन की स्थिति बेहतर करे। सड़क और रेल नेटवर्क का निर्माण कराए। व्यापार-व्यवसाय को सभी तरह के प्रतिबंधों से मुक्त किया जाए। इस दबाव के फलस्वरूप उन्होंने जो हासिल किया, वह सभी भारतीय व्यापारियों के लिए फायदेमंद रहा। दरअसल, इस नए उभरते भारतीय मध्य वर्ग को अपने हितों की पहचान हो चुकी थी। इसके राजनीतिक परिणाम भी आगे होने ही थे, जो हुए भी। 

ब्रिटेन की इच्छा थी कि वह अपने उत्पाद निर्माताओं के लिए, जब तक संभव हो, भारतीय बाज़ार पर पकड़ बनाए रखे। उसकी इस इच्छा ने भारत में कारखानों और भारी उद्योगों की स्थापना का सिलसिला शुरू किया। कंपनी ने 1825 में एक अंग्रेज कारोबारी को मदद देकर लोहे की ढलाई का कारखाना स्थापित कराया था। लेकिन वह चल नहीं पाया क्योंकि लकड़ी के कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं थी। इसके बाद 1853 में लैंडन नाम के अमेरिकी ने भरूच में सूत का कारखाना लगाया। इसके सालभर बाद बम्बई में एक पारसी उद्योगपति ने कारखाना स्थापित किया। फिर 1855 डुंडी (स्कॉटलैंड का शहर) के जूट निर्माताओं ने भी बंगाल से बाहर कपड़े का कारखाना लगाया। इस तरह कंपनी का शासन ख़त्म होते-होते जूट और सूत दोनों के उत्पादन में पर्याप्त विस्तार हो चुका था। 

इससे पहले 1830 तक आधुनिक अर्थों में जिन्हें सड़कें कहा जाता है, वे भारत में नहीं के बराबर थीं। हालाँकि इसके बावजूद नदियों के रास्ते ब्रिटिश उत्पाद भारत के सुदूरवर्ती इलाकों तक पहुँच रहे थे। इससे भाप के इंजन से चलने वाली नौकाएँ 1828 के शुरू में ही उपस्थिति दर्ज़ करा चुकी थीं। वे उन इलाकों तक उत्पाद पहुँचाती थीं, जहाँ पहियों वाली गाड़ियाँ नहीं पहुँचती थीं या जहाँ रास्ते बरसात में ध्वस्त हो जाते थे। बहरहाल, सरकार ने 1830 में बम्बई से पूना के बीच पहली सड़क का निर्माण कराया। फिर 1839 में फ़ैसला किया कि कलकत्ता से दिल्ली तक जर्जर हो चुकी सभी सड़कों को दुरुस्त कराया जाए। उन्हें आपस में जोड़कर राजमार्ग का निर्माण कराया जाए। नदियों पर पुल-पुलिया बनवाए जाएँ। इन प्रयासों के बीच ग्रांड ट्रंक रोड सबसे ज़्यादा चर्चित रही। उसके अलावा मद्रास से बम्बई के बीच 800 मील और बम्बई से आगरा 900 मील लंबी सड़कों का निर्माण भी कराया गया। 

इसके बाद भारत में रेल पथ के निर्माण का पहला गंभीर प्रस्ताव 1844 में तैयार हुआ। यह पहल यूरोपीय कारोबारी समुदाय ने की थी। लंदन में बैठे कंपनी के निदेशकों को इस पर संदेह था कि भारत में रेलपथ का निर्माण सफलतापूर्वक हो भी पाएगा या नहीं। इसीलिए उन्होंने छोटे-छोटे रेलमार्गों के निर्माण की ही पहले अनुमति दी। लेकिन 1853 में वायसराय लॉर्ड डलहौजी कंपनी के निदेशकों को यह समझाने में सफल रहे कि रेलपथ के निर्माण से बड़े आर्थिक लाभ की स्थिति बनेगी। इसका नतीज़ा ये हुआ कि 1857 के विद्रोह के पहले तक जहाँ बमुश्किल 300 मील लंबा रेल पथ बन सका था। वहीं, इसके बाद के सालों इस दिशा में महत्वपूर्ण और तेज प्रगति हुई।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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