अपने बच्चों से हमें बाज की परवाज़ सी उम्मीद कब करनी चाहिए?

टीम डायरी, 25/7/2021

बड़ी मौज़ूँ है ये कहानी। अभी जब जापान की राजधानी में टोक्यो में ओलम्पिक खेल चल रहे हैं, तब ख़ास तौर पर।

बाज या शाहीन, जिसे पक्षियों का राजा कहा जाता है, वह यूँ ही यह हैसियत हासिल नहीं करता। लम्बे, पीड़ादायक, अथक संघर्ष के बाद उसे यह रुतबा मिलता है। पैदा होते ही उसका संघर्ष शुरू हो जाता है। कहते हैं, जब दूसरे पक्षियों के बच्चे चिचियाना सीखते हैं, तब मादा बाज अपने चूज़े को पंजे में दबाकर आसमान की ऊँचाईयों पर ले जाती है। करीब 12 किलोमीटर ऊपर। इस ऊँचाई पर उस बच्चे को यह अहसास कराया जाता है कि उसका धर्म क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? उसकी परवाज़ (उड़ान) कहाँ तक है? वह छोटा सा बाज का चूजा अभी कुछ समझता नहीं पर माँ समझती है और समझाना भी जानती है। वह उसे आसमान की उस ऊँचाई से नीचे छोड़ देती है। बिजली की रफ़्तार से बच्चा नीचे आने लगता है। करीब दो-तीन किलोमीटर नीचे आने तक उसे समझ ही नहीं आता कि यह उसके साथ हुआ क्या है? लगभग सात किलोमीटर तक नीचे आने पर उसके जकड़े हुए पंख खुलने लगते हैं। यही कोई नौ किलोमीटर तक नीचे आने पर उसके पंख पूरे खुल जाते हैं और वह उन्हें फड़फड़ाना शुरू कर देता है। आख़िर जीवन बचाना है तो कोशिश करनी ही पड़ेगी। हालाँकि यह कोशिश अभी असफल ही साबित होती है। धरती करीब दिखने लगती है और जीवन की उम्मीद उससे दूर होती जाती है। धरती से ऊँचाई करीब 500-700 मीटर जब रह जाती है तो वह जीने की उम्मीद छोड़ने लगता है। लेकिन तभी एक बड़ा पंजा उसे पकड़ लेता है। यह उसकी माँ है, जो ठीक उसके ऊपर उड़ रही होती है।

मगर थोड़ा ठहरें, क्योंकि उस माँ ने बच्चे को बचाया ज़रूर है पर अपनी आगोश में समा लेने के लिए नहीं। वह उसे फिर उसी ऊँचाई पर ले जाती है, जहाँ से उसको पहले छोड़ा था। दूसरी बार फिर छोड़ देती है। यह क्रम तब तक चलता है, जब तक बच्चा अपने परों से ख़ुद उड़ना नहीं सीख जाता। इस कठिन प्रशिक्षण का सिला ये होता है कि बारिश होने पर जब तमाम परिन्दे पेड़ों में, घोंसलों में छिपते फिरते हैं, तब बाज पूरी शान से बादलों के ऊपर की ऊँचाई नाप लेता है। वहाँ तब तक उड़ता रहता है, जब तक बारिश थम नहीं जाती। उसकी दृष्टि और एकाग्रता ऐसी कि हजारों फीट की ऊँचाई से शिकार को पहचान लेता है। तेजी इतनी कि बिजली की रफ्तार से शिकार पर झपट्टा मारता है। या कहें कि लक्ष्य साधता है। और दमखम ऐसा कि अपने से 10 गुना ज़्यादा वजनी जीव को पंजों में फँसाकर मिनटों में आसमान पर ले जाता है।

कहते हैं, बाज इरादे और हौसले का भी पक्का होता है। उसकी कुल उम्र 70-75 साल के आसपास मानी जाती है। लेकिन इस बीच 35-40 साल की उम्र में एक दौर ऐसा आता है, जब उसके पंख भारी हो जाते हैं और चोंच-नाखून टेढ़े। ऐसे हालात किसी के लिए भी हार मानकर बैठ जाने के लिए काफ़ी हैं। पर शाहीन ये विकल्प नहीं चुनता। वह पहाड़ी की ऊँचाई पर जाता है। पहले सा रुतबा हासिल करने का इरादा करता है। पत्थर पर ठोकर मार-मारकर चोंच तोड़ देता है। खुरच-खुरच कर नाखून गिरा देता है। तड़पता है, फड़फड़ाता है, पर हौसलापस्त नहीं होता। कुछ समय बाद उसकी चोंच और नए नाखून निकल आते हैं। पर अभी मंसूबा पूरा नहीं हुआ है। भारी-भरकम पंख बाकी हैं। लिहाज़ा, उन्हें चोंच मार-मारकर झड़ा देता है। लहूलुहान हो रहता है। मगर बचपन से मिले प्रशिक्षण ने उसे ऐसी तक़लीफ़ें बर्दाश्त करने की हिम्मत दे रखी है। कुछ समय बाद उसके नए पंख उग आते हैं। और शाहीन फिर बाकी ज़िन्दगी आसमान की ऊँचाईयाँ छूता है। 

अब इस कहानी के बरक़्श ज़रा सोचें क्या हमने अपने बच्चों को बाज के चूजे की तरह सख़्त प्रशिक्षण दिया है? क्या हमने उनमें वह हौसला, वह इरादा, वह दृष्टि, वह एकाग्रता, वह दमखम भरा है?  

अगर हमारे पास इन सवालों के ज़वाब हाँ में हैं, तब ही सही मायनों में हमें अपने बच्चों से बाज की परवाज़ सी उम्मीद करनी चाहिए। वरना नहीं। 

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