बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 5/10/2021

जब भी बुद्ध को पढ़ता हूँ तो पाता हूँ, आधुनिक भारत के बौद्ध व्याख्याकारों और बौद्धधर्मियों ने बुद्ध को सनातन के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ भारतीय भूमि से जन्मा बुद्ध धर्म धीरे-धीरे अपनी ही धरती से अलग हो गया। जबकि बुद्ध तो मूल रूप से सनातन के अतिकर्मकांडो की श्रृंखलाओं के परिहार के लिए खड़े हुए थे, बस।  

बुद्ध को जब भी हम मूल में पढ़ेंगे तो पाएँगे कि वे विद्रोही थे। लेकिन उच्छृंखल नहीं थे। उन्होंने समाज की जकड़न को तोड़ा लेकिन समाज को जोड़ा भी। बुद्ध पुराने सिद्धान्तों को नई दृष्टि देते हैं। लेकिन दृष्टि को बाधित नहीं करते। 

पढ़ने वालों को लग सकता है कि आज बुद्ध-दर्शन की श्रृंखला में ऐसी सामान्य बातें क्यों हो रही हैं? इसका कारण है। दरअसल, अभी एक ख़बर पढ़ी कि बुद्ध मत के मानने वाले कुछ लोग दशहरे पर पुष्यमित्र शुंग का पुतला दहन करेंगे। कारण कि पुष्यमित्र के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उसने अपने राज में बौद्ध धर्म को समाप्त करने की कोशिश की थी। 

यह पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि मैंने बुद्ध को जितना पढ़ा, उसमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि उन्होंने या उनके पूर्व-अनुयायियों ने ख़ुद से मतान्तर रखने वालों के ख़िलाफ़ इस तरह का कोई प्रतिक्रियात्मक कृत्य किया हो। और ऐसा तो बिल्कुल नहीं, जिससे भारतीय समाज में ही दो विचारों के बीच भेद पैदा हो जाए। नफ़रत पैदा हो।  

बुद्ध से प्रभावित राजा बिम्बिसार के बारे में बताया जाता है कि उनकी एक रानी तो जैन धर्म को मानने वाली थी। जबकि बिम्बिसार ख़ुद बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके थे। फिर भी उन दोनों के बीच कभी कोई मतभेद नहीं रहा। बिम्बिसार के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे स्थायी सेना रखने वाले पहले शासक थे। उन्होंने युद्ध के द्वारा अपने राज्य का विस्तार किया। पर कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि उन्होंने विरुद्ध धर्मानुयायियों का वध किया या राज्य से निष्कासित किया। 

बुद्ध ख़ुद अपने किसी प्रवचन में अन्य धर्मावलम्बी को मारने, पीड़ित करने का उपदेश करते नहीं दिखाई देते। बल्कि वृद्ध बुद्ध तो पौष्टिक बताकर उन्हें खाना देने वाले व्यक्ति के आग्रह तक को नहीं ठुकरा सके। इस कारण उनका शरीर और कमज़ोर हो गया। अन्तत: उनकी मृत्यु भी हो गई। मग़र बुद्ध उस व्यक्ति को भी क्षमा कर देते हैं। बुद्ध के तत्कालीन अनुयायी भी उस भक्त को दंडित नहीं करते। 

बौद्ध धर्म को मानने वाले थाइलैंड के बारे भी कहा जाता है कि उसकी राष्ट्रीय पुस्तक ‘रामायण’ है। इसीलिए ऐसे उद्धरणों के ही आधार पर यह प्रश्न भी उठते हैं कि ये कौन लोग हैं, जो आज बुद्ध के अनुयायी होने का तो दावा करते हैं लेकिन उन्हीं की शिक्षा के विरुद्ध जाकर कार्य कर रहे हैं? क्या इनके कृत्य उचित कहे जा सकते हैं? ख़ास तौर पर बुद्ध-दर्शन के ही आधार पर? बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?  

बुद्ध विचार से न तो भारत के विरुद्ध थे और न भारतीयता या सनातन के। सनातन से उनका वैचारिक भेद तो हो सकता है, लेकिन तात्विक अन्तर नहीं था। इसीलिए आज ऐसी मतभेद पैदा करने वाली परिस्थितियों में हमें अपने वास्तविक बुद्ध पहचानने होंगे। मानने होंगे। अपनाने होंगे। अन्यथा तथागत् का संघ छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 31वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं…

30वीं कड़ी : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29वीं कड़ी : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28वीं कड़ी : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27वीं कड़ी : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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