सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 17/1/2022 

कक्षा छठवीं की संस्कृत की पाठ्यपुस्तक में एक श्लोक है, 

“सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च, सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।।”  

भावार्थ है कि सत्य के कारण पृथ्वी स्थिर है। सत्य के कारण सूर्य अपनी ऊष्मा प्रदान करता है। सत्य के कारण वायु बहती है। इस संसार में सब कुछ सत्य से ही प्रतिष्ठित है। 

यह श्लोक चाहे बच्चे की समझ से गहरा हो, लेकिन यह उस पर असर सकारात्मक डालता है।  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, ‘’शिक्षा केवल जीवनयापन के लिए तैयार करने का उपक्रम भर नहीं है बल्कि यह व्यक्ति को मानव बनाने की मूलभूत आवश्यकता है।’’ 

मुझे इस सन्दर्भ में अथर्ववेद का मन्त्र (14.2.25) याद आ रहा है। उसमें प्रार्थना की गई है, “इस माता की कोख से जो पशु उत्पन्न है, उसकी प्रतिष्ठा हो।’’ यहाँ ‘पशु’ से तात्पर्य उस ‘नवजात बालक’ से है, जिसने अभी ’मनन,दर्शन’ करना शुरु नहीं किया है। मनन करने से ही व्यक्ति मनुष्य बनता है। और सत्य का महत्व उस मनुष्य के लिए ही है। जब बच्चे में बचपन से संस्कार पड़ते हैं और वे संस्कार निरन्तर प्रवाहमान भी रहें, तो वह शिशु बड़े होने पर भी संस्कारों से विमुख नहीं हो पाता। 

जैन धर्म अपने दार्शनिक सिद्धान्तों में चारित्रिक उज्ज्वलता को इसी कारण अत्यधिक महत्त्व देता है। जिससे मानव मानवीय मूल्यों से जुड़े रहकर जीवनयापन करे। जैन मत के पाँच महाव्रतों में दूसरा है, ’सत्यव्रत’ यानि सत्य बोलना। यह सत्य बोलना बड़ा ही कठिन है। कठिन क्यों है? देखिए.. 

सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं, 

“प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतम् व्रतमुच्यते।
तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियम् चाहितम् च यत।।”
अर्थात प्रिय (सुनने में सुखद), पथ्य (अन्त में सुखद), तथा तथ्य (यथार्थ, सत्य), वाणी को सत्यव्रत कहते हैं। 

यहाँ सोचा जा सकता है कि ऐसा सत्य कैसे बोलें, जो मधुर हो, प्रिय हो और यथार्थ भी हो? जब यथार्थ होगा, तो मधुर कैसे होगा? अगर मधुर होगा, तो यथार्थ कैसे होगा? प्रिय कैसे होगा? लेकिन जब आचार्य कह रहे हैं, तो ऐसा होगा ही। मान लीजिए किसी नेत्रहीन व्यक्ति को आप ‘अन्धा’ कहेंगे, तो वह यथार्थ सत्य तो होगा, लेकिन प्रिय नहीं होगा। लेकिन उस व्यक्ति को आप ‘प्रज्ञाचक्षु’ कहेंगे तो, वह यथार्थ भी होगा, सत्य भी होगा और मधुर भी होगा, प्रिय भी होगा। अनुमान है कि आजकल अंगहीन व्यक्ति के लिए ‘दिव्यांग’ शब्द का प्रयोग भी जैन दर्शन के इसी कथन को ध्यान में रखकर प्रयोग में लाया जाने लगा होगा। 

सत्य केवल यथार्थ और प्रिय हो ऐसा जैन ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की चेतना का अभिन्न तत्व है। देखिए कितना सुन्दर श्लोक है, 

“सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातन:॥” 
अर्थात् सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिए। प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिए ; यही सनातन धर्म है।। 

इस कारण हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम सत्य बोलें और यथार्थ के साथ-साथ प्रिय भी बोलें। अक्सर दर्शन के विषय में  कहा जाता है कि दर्शन समस्याओं को देखता है, लेकिन समाधान प्रस्तुत नहीं करता। लेकिन मुझे लगता  है, भारतीय भूमि पर जन्मा प्रत्येक दर्शन केवल मानव जीवन को बेहतर बनाने हेतु ही अग्रसर दिखाई देता है। अत: यह कहा जाए कि भारतीय तत्त्वों को अपनाकर हम ज्यादा मानवीय हो जाते हैं तो यह अनुचित नहीं होगा।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 42वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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