अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 26/10/2021
अभी तक विविध कड़ियों के माध्यम से बुद्ध के सिद्धान्तों, उपदेशों, उनके जीवन की घटनाओं का परिचय प्राप्त किया। इन विविध प्रसंगों से यह ज्ञात होता होता है कि बुद्ध ने भारतीय परम्परा से प्राप्त ज्ञान और अनुभव से, अपने उपदेशों के जरिए समाज में सरल व्यवस्था बनाने का प्रयास किया।
समाज में समय-समय पर परिवर्तन होना अपरिहार्य है। लेकिन कुछ परिवर्तन काल-क्रम से स्वत: होते चलते हैं। कुछ परिवर्तन विविध क्रान्तिदर्शी व्यक्तियों द्वारा होते हैं। प्रत्येक परिवर्तन का समाज में अच्छा और बुरा प्रभाव पड़ता है। कुछ संघर्ष भी होता है। कुछ व्यवस्थाएँ बनती और कुछ मिटती हैं। बुद्ध ने भी यही किया कर्मकांडो के जकड़े समाज की जकड़न को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन उनके मामले में भी एक तरह के कर्मकांड मिटे, तो दूसरी तरह के निर्मित हुए।
जैसे, एक ओर बुद्ध देवताओं का परिहार करते हैं। वहीं बुद्ध के अनुयायी बुद्ध को ही देवता रूप में स्थापित कर देते हैं। बुद्ध पूजा, यज्ञ आदि विधानों का निषेध करते हैं। वहीं अब बुद्ध की पूजा आदि व्यवस्था का निर्माण हो चुका है। जहाँ एक ओर बुद्ध नित्य सत्ता का उपहास करते हैं। वहीं बुद्ध सिद्धान्त स्वयं वेद वाक्य की तरह स्थापित किए जाने लगते हैं। एक ओर वे ईश्वर का निषेध करते हैं। वहीं दूसरी ओर बुद्ध की अस्थियों तक पर अधिकार हेतु विवाद होता है। अन्तत: अस्थियों का बँटवारा करना पड़ता है। बुद्ध मठों मठाधीशों का उपहास करते हैं। वहीं स्वयं मठों, संघों, विहारों का निर्माण कर लिया जाता है। अन्तत: बौद्ध धर्म का परिणाम जिस सनातन धर्म की व्यवस्था को सरल करने के उद्देश्य से हुआ वही सनातन से भी अधिक जकड़ा हुआ दिखाई देने लगता है।
इसे हम दीर्घ निकाय के एक प्रसंग से समझ सकते हैं- राजा मागध अजातशत्रु वैदेहीपुत्र ने सुना कि भगवान कुसीनारा में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं। तब राजा ने कुसीनारा के मल्लों के पास दूत भेजा और कहा, “भगवान क्षत्रिय थे। मैं भी क्षत्रिय हूँ। भगवान के शरीर (अस्थियों) में मेरा भी भाग है। मैं स्तूप बनवाऊँगा और पूजा करूँगा।” ऐसे ही लिच्छवियों ,शाक्यों, बुलियों, ब्राह्मणों ने भी दावे किए। इस प्रकार सभी का आपस लड़ाई करते हैं। आगे लिखा है- ऐसा होने पर द्रोण ब्राह्मण ने उन संघों और गणों से कहा, “आप सब मेरी एक बात सुनें। हमारे बुद्ध क्षमावादी थे। इसलिए यह ठीक नहीं कि उस उत्तम पुरुष की अस्थि बाँटने में मरपीट हो।”
(दीर्घ निकाय, महापरिनिर्वाणसुत्त 2/3)।
इस प्रसंग को देख ऐसा प्रतीत होता है। बुद्ध के उपदेशों का उनके समय में और तत्काल पश्चात् भी, व्यवहार में या थोड़ी सी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में उनके अनुयायी पालन नहीं करते थे। सम्भवत: बौद्व धर्म का ह्रास बुद्ध के तत्काल पश्चात ही शुरू हो गया था। वह विविध भागों में बँट गया। कारण चाहे कोई भी रहे हों। हाँ, एक बात निश्चित है कि सामान्य समाज में, सामान्य जनों में बुद्ध धर्म का प्रभाव बहुत न भी रहा हो लेकिन विद्वत् समाज में वह बहुत प्रभावी रहा। इसके परिणामस्वरूप बौद्ध दर्शन बहुत प्रगति कर सका। विद्वत् समाज में किसी भी विषय का स्थान रहने का एक विशेष कारण यह भी रहता है कि वह समुदाय एकांतवासी होता है। उनका बौद्धिक वाद-विवाद में समय व्यय होने से तथा मुक्ति/मोक्ष लक्ष्य होने से शीघ्र मत परिवर्तन नहीं होता। विद्वान व्यक्ति के मत परिवर्तन का कारण या तो बौद्धिक विवाद में पराजय हो या आत्मिक कारण हो, तभी सम्भव है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म सनातन की पीठ पर सवार होकर अपनी दिशा निर्धारित करता है। लेकिन बाद के बौद्ध के अनुयायियों ने सनातन के विरुद्ध उसकी स्थापना का प्रयास किया। इस प्रयास में बौद्ध अपनी ही भूमि से छिन्न होकर भिन्न होने लगा।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 34वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां…
33वीं कड़ी : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32वीं कड़ी : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं?
31वीं कड़ी : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30वीं कड़ी : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29वीं कड़ी : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28वीं कड़ी : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27वीं कड़ी : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26वीं कड़ी : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25वीं कड़ी : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24वीं कड़ी : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23वीं कड़ी : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा!
22वीं कड़ी : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो
21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो?
20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है
19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है
18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है
17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं?
16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?
15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?
14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?
13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?
12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन
11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?
10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?
नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!
आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?
सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?
छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है
पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?
चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?
तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!
दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?
पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?
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