महायुद्ध पूर्व की लड़ाइयाँ जहाँ होती हैं, वहाँ क्यों इनका आभास भी नहीं होता?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

विश्व एक संरचनात्मक बदलाव की स्थिति में प्रवेश कर चुका है। दरक रही निवर्तमान विश्व-व्यवस्था के लक्षणों पर कहीं कोई आवाज़ नहीं हो रही है। विश्व के बहुराष्ट्रीय संगठनों के एजेंडे में फूट, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में एजेंडा स्थापित करने वाले समूहों के खिलाफ कार्रवाई जैसे मुद्दों पर इसी मंच के पृष्ठों पर पूर्व में लेखक इस बाबत संकेत कर चुका है। उन मजबूरियों का भी जिक्र किया गया है, जिनकी वजह से दबंग मेनस्ट्रीम मीडिया ऐसे सच को बयाँ करने से बचता है। मीडिया और विविध उपक्रमों से मैनस्ट्रीम नैरेटिव द्वारा प्रभावित करने वाले शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय संगठन जैसे ओमिड्यार नेटवर्क या ओपन सोसायटी के पत्ते उजागर होना जारी है। संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के राजदूत ने जॉर्ज सॉरस पर एंटी सेमेटिक संस्थाओं को फंड करने का आरोप लगाया है। ज्ञातव्य है कि जॉर्ज सॉरस संयुक्त राष्ट्र के साथ कई मुद्दों पर काम करते हैं। ओमिड्यार नेटवर्क भारत में अपने निवेश को समेट रहा है। माेटे तौर पर इस ओर अभी भी विश्लेषकों ने अपनी नजर-ए-इनायत नहीं की है। ये मुद्दे शोर-शराबा वाली ख़बरों के मुक़ाबले ज़्यादा संज़ीदा हैं और इन छोटी-मोटी लड़ाइयों में आने वाल बड़े बदलावों को सूत्र छिपे हुए हैं।

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में रक्तपात

पिछले हफ्ते अमेरिकी कांग्रेस की सुनवाई में तीन शीर्षस्थ यूनिवर्सिटीज हार्वर्ड, पेन्सिल्वेनिया और एमआईटी के अध्यक्षों ने यहूदी नरसंहार के आह्वान को कैंपस उत्पीड़न नहीं माना। इसके बाद वही हुआ, जिसकी आशंका थी। पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी की अध्यक्ष लिज़ मैगिल ने इस्तीफा दे दिया। हार्वर्ड की क्लाउडिन गे ने माफी माँगी है। वहीं शिक्षकों ने खुला पत्र लिखकर यूनिवर्सिटी बोर्ड से इल्तिजा की कि सरकार और जनता के दबाव में आकर उन्हें न हटाएँ और शिक्षा की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखें। मतलब अकादमिक स्वतंत्रता के सुरक्षित वातावरण में सामाजिक ज़वाबदेही से बचने वाले शिक्षा जगत की हर नीति और गतिविधि की अब छानबीन होने लगी है। अब शीर्षस्थ यूनिवर्सिटीज से बड़ा रक्तस्राव होना लाजिमी है, और इससे काफी मवाद भी बाहर निकलेगा। अमेरिकी विदेशनीति का अस्त्र रहा मुख्यधारा का अति उदार धुर वामपंथी चश्मा अब अप्रासंगिक हो रहा है। एंटी-सेमेटिज्म के मुद्दे पर इस्लामवाद, उपनिवेशवाद और उससे जुड़ी अतिउदारवादी विचारधारा बेनक़ाब हो रही है। अमेरिका के भीतर यह जो हलचल मच रही हैं, उसके परिणाम विस्तृत, दूरगामी और बहुआयामी होंगे ही, क्योंकि इसके कारण भी बहुत गहन हैं।

क्या ‘डीडॉलराइजेशन’ एक सच्चाई होने जा रही है?

अमेरिकी नेतृत्त्व वाली विश्वव्यवस्था जिस फॉर्मेट में कार्य करती है, उसके लिए वैश्विकता और तदनुरूप, विचार, संस्थान और मुद्रा की ज़रूरत रही। डॉलर के रूप में विश्व को सर्वप्रथम ऐसी वैश्विक मुद्रा मिली, जिसके मूल्य निर्धारण के लिए कोई भौतिक परिसम्पत्ति नहीं थी। वह विशुद्ध रूप से अमेरिकी अधिकार और ताक़त के बल पर छपता रहा। इससे अमेरिका और यूरोप ने अकूत संसाधन और ताक़त हासिल की। बहुसंस्कृतिवाद, बहुपक्षवाद, डॉलर, विश्वबैंक आदि इसी कड़ी का हिस्सा थे। आज यह सब अपने ही वजन में ढह रहे हैं। आज के बदलाव इन मूल्यों से विपरीत दिशा में जाते हैं। विनिमय में डॉलर का हिस्सा तेजी से घट रहा है। कई विश्लेषक इसे ‘डीडॉलराइजेशन’ भी कह रहे हैं। भले ही यह अर्धसत्य हो लेकिन भारत, चीन, ब्राजील और अरब देशों जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं का अपनी मुद्राओं में आपसी व्यापार डॉलर और अमेरिका के प्रभाव को कम तो कर रही रहा है।

मजे की बात यह है कि इतने जाहिर और प्रत्यक्ष चिह्नों के बावजूद लोग स्थिति का आकलन करने में अक्षम साबित हो रहे हैं। जनसंचार से जुड़े अधिकतर संगठनों के हित वर्तमान विश्वव्यवस्था के चलते रहने में निहित हैं। वे भली भाँति जानते हैं कि अर्थतंत्र की तरह यहाँ भी नींव बड़ी नाजुक है। जैसे एक मामूली अफ़वाह किसी बैंक को चन्द घंटों में दिवालिया कर सकती है, उसी तरह व्यवस्था की कमजोरी की एक छोटी सी ख़बर भी भारी तबाही मचा सकती है।

ट्रांसएटलांटिक सम्बन्धों में दरार

मौक़ापरस्त मल्टी-कल्चरलिज्म के आदर्श से यूरोपीय जनमत का मोहभंग हो रहा है। फिनलैंड, इटली, स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, स्वीडन और जर्मनी में स्थानीय राष्ट्रवाद के उभरते सुर वर्तमान विश्व-व्यवस्था के ऑर्केस्ट्रा की सिम्फनी बिगाड़ रहे है। अमेरिका को अप्रत्याशित अर्थतंत्र के पूर्ण प्रभुत्व के साथ ही साथ डॉलर के चलन से हो रहे अप्रत्याशित लाभ से यूरोपीय अर्थतंत्र भी आक्रान्त है। अमेरिका द्वारा नाटो में यूरोपीय सुरक्षा हितों को धता बताना, यूक्रेन युद्ध से आयुध उद्योग के अफलातून लाभ करवाना, नार्डस्ट्रीम पाइपलाइन विस्फोट के बाद यूरोप को महँगा तेल व गैस लेने के लिए मजबूर करना। ऐसे तमाम घटनाक्रम ट्रांस-अलटांटिक संबंधों की दरार की ओर इशारा करते हैं। स्थानीयतावादी राष्ट्रवाद में पश्चिमी जगत के पतन की कहानी को जो लोग नहीं पढ़ पा रहे हैं, उन्हें ख़ुद को अपनी बुद्धि, युक्ति और समझ पर एक बार फिर से आश्वस्त हो लेने की ज़रूरत है। इसके पीछे ठोस कारण भी है। अन्य सभ्यताओं पर अब्राहिमी उपनिवेशी विचार का असर कुछ इतना व्यापक है कि हम अपनी मूल पहचान के खिलाफ जाकर भी उपनिवेशी हित और नज़रिए से ही जुड़ाव अनुभव करते है। स्वत्व के नाम पर हमारे पास कोई समझ बाकी नहीं बची है। वहीं पश्चिमी सभ्यता के झंडाबदारों में सिर्फ कमजर्फ और आत्ममुग्ध लोगों का समूह बच गया है।

उम्माह में आंतरिक असन्तोष

इजरायल के प्रतिशोध के ख़िलाफ़ मुस्लिम उम्माह में पनप रहे असन्तोष को आप कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स और अख़बारों में पढ़ रहे हैं। मध्य एशिया में प्रमुख देशों में वर्चस्व के लिए प्रयास, ईरान और इराक सहित अरब देशों के दाँवपेंच और वहाँ के पन्थों के कलह पर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े प्रकाशनों में छपता रहा है। लेकिन यह सब सच होते हुए भी घिसा-पिटा और बेकार है। इनमें उन नए घटनाक्रम का कोई ब्यौरा नहीं जो भविष्य की तस्वीर दिखा रहे हैं।

शुरुआत करते है ईरान से। यहाँ शिया सत्तातंत्र को आज़ादी के जिस विचार का सामना करना पड़ रहा है, वह स्थानीय इस्लामपूर्व के सांस्कृतिक धरातल से आता है। चाहे-अनचाहे अमेरिकी और यूरोपीय प्रभावों ने वहाँ जिस तसव्वुर, तर्कना और खुलेपन को हवा दी है, वह प्राचीन सभ्याताई मूल्यों से पर्याप्त इत्तिफ़ाक़ रखती है। ईरान जिस सांस्कृतिक क्रान्ति के लिए तैयार है, वह उम्माह के लिए अभूतपूर्व अनुभवों का संकेत करती है।

अफ्रीका में हजारों वर्षों से एक अत्यंत मजबूत और महीन आपसी संबंधाें से बँधा जनजातीय जीवन रहा। लेकिन उपनिवेशी दोहन के लिए इस्लामी-ईसाई मजहबी विचारों के राष्ट्रवाद ने जनजातीयों को रक्त और शोषण के दुष्चक्र में फँसा दिया। आज सूडान, कांगो, सोमालिया, नाइजिरिया, इथोपिया, बुर्किना फासो, इरिट्रिया जैसे 14 देशों में 4 करोड़ से ज़्यादा लोग विस्थापित जीवन जीने को बाध्य हैं। सूडान में छह महीनों में 12 हजार से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं लेकिन अफ्रीका की मौतें सिर्फ एक आँकड़ा भर है। पिछले महीने ही पाकिस्तान ने 40 साल से अधिक समय से रह रहे कोई 20 लाख से अधिक अफगान मूल के लोगों को देश छोड़ने के आदेश दिए हैं। कारण बताया गया कि पाकिस्तान में मजहबी जलसों, सेना और पुलिस पर खूनी हमले किए जा रहे हैं। इनके पीछे अफगानिस्तान के कट्‌टरपंथी दहशतपसंद लोग हैं। अफगानिस्तान जा रहे लोगों पर 50 हजार से अधिक पाकिस्तानी रुपए ले जाने पर प्रतिबंध लगाया गया है। हममजहब बिरादरों को औने-पौने दाम में अपना घर, माल-असबाब और जायदादें बेच, रकम को छिपाकर मुजाहिर बने इंसान की हालत हम शायद ही समझ सकते हैं। महजबी नैतिकता की हकीकत को चौराहे पर खड़ा करने वाली बात है। ये दिलों के जख्म पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संबंधों पर क्या असर डालेंगे यह आने वाला वक्त ही बताएगा।

दरअसल दारुल उलूम देवबंद का जो सपना अफगानिस्तान में तालिबान के रूप में और पाकिस्तान में तहरीक़-ए-तालिबान जैसे संगठनों के रूप में साकार हुआ, वह अलीगढ़ में देखे गए इस्लामी राज्य पाकिस्तान के सपने से टकरा रहा है। इनके बीच आसमानी मुस्लिम उम्माह की अवधारणा कैसे रहेगी, यह एक ज्वलन्त सवाल है। देवबंद और अलीगढ़ ने अपने निजी एजेंडा के तहत इस्लामी हुक़ूमत के सपने को साकार करने के लिए उस स्थानीय कुदरती लोया जिरगा को कमजोर किया, जो इस्लाम के अन्तर्गत विविध समुदायों के लिए खाप पंचायत की तरह की व्यवस्था थी। इस्लामी हुक़ूमत स्थापित हो गई है, तो जाहिर कारणों के चलते वह समसामयिक मुद्दों को हल करने में अक्षम है। डर यह है कि यदि अफगानिस्तान में नस्ल, जनजाति या मजहबी आधार पर टकराव होते हैं, तो स्थिति सीरिया, लेबनान या यमन की तरह ही बेकाबू हो जाएगी। यूरोप, अफ्रीका, पाकिस्तान, ईरान, भारत, चीन सहित सम्पूर्ण एशिया इसकी जद में आने से नहीं बच सकेगा।

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