ख़ुदकुशी के ज्यादातर मामलों में लोग मरना नहीं चाहते… वे बस चाहते हैं कि उनका दर्द मर जाए

कुंदन शोभा शर्मा, उज्जैन, मध्य प्रदेश से, 12/9/2022

अभी 10 सितम्बर को ‘वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे’ था। यानी ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’। ऐसे मौकों पर अक्सर चर्चा आत्महत्या के बारे में ही होती है। लेकिन मुझे लगता है कि मेन्टल हेल्थ यानी मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात की जानी चाहिए। क्योंकि कोई भी अचानक नही मरता। उसके मरने से पहले मरती हैं उसकी उम्मीदें। उसका भरोसा, उसके सपने। और लंबे वक़्त तक इन सबकी लाश ढोता रहता है वह अकेला। किसी को भनक नही लगने देता। फिर जब थक जाता है, तो चुन लेता है अपनी मंज़िल। वह एक फंदा हो सकती है, ट्रैन की पटरी, जहर या नींद की गोलियाँ।

मेरे साथ एक लड़का था। चुटकुले बहुत अच्छे सुनाता था। एक लड़की थी, जो नाचती बहुत अच्छा थी। एक अंकल थे, जो कभी बच्चों को डाँटते नहीं थे। एक आंटी थी, जो बिना मिठाई खिलाए किसी को घर से जाने नहीं देती थीं। एक 11 साल का बच्चा था, जो हमेशा क्लास में टॉप करता था। फिर एक-एक करके ये सब अचानक से मेरे सामने से चले जाते हैं। वज़ह अलग-अलग होती हैं। लेकिन जाने का तरीका सबका एक।

सबका यूँ चले चले जाना स्तब्ध कर देता है। क्या उस लड़के को जाना था, जो सबको हँसाता था? क्या ये नहीं हो सकता था कि काश! उसका रोना कोई देख लेता? उस लड़की का नाच सबको अच्छा लगता था, दिखता था, लेकिन उसकी टूटी उम्मीदें किसी को नहीं दिखाई देती थीं। उस बच्चे का क्लास में टॉप करना सबने देखा, लेकिन वह फेल कहाँ हुआ, यह कोई देख नहीं सका।  बीते दिनों एक लड़का हमें ऐसे ही छोड़कर चला गया। हालाँकि मैं उससे ज़्यादा सम्पर्क में नही था। लेकिन उसका जाना व्यथित करता है। मैं दूर खड़ा उसकी लाश से बोल रहा था कि भाई, तुझे बात करनी चाहिए थी, किसी ऐसे से जो तुझे जज न करे।

आत्महत्या करना आसान है। लेकिन उसके परिणाम यह होते हैं कि आपके माँ-बाप अपनी बची हुई ज़िन्दगी उस देहरी को देखते हुए काटते हैं, जहाँ से आप बचपन मे उन्हें ढूँढ़ते हुए घर के अन्दर आते थे। वह कमरा उन्हें कभी अपना नहीं लगेगा, जहाँ से आपकी लाश बरामद हुई। घर में पकवान तो बनेंगे लेकिन वो स्वाद नही मिलेगा, जो उन्हें आपके साथ खाते हुए मिलता रहा। एक जवान बेटे-बेटी की लाश को ढोना एक बाप के लिए संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है। ये पढ़ते-पढ़ते आपके आसपास या किसी कोने में ऐसे ही कई लड़के, लड़कियाँ, पुरुष और महिला फंदा डाल चुके होंगे अपने गले में। ख़बर मिलेगी सुबह। 

दरअस्ल, आत्महत्या करने वाले यह नहीं समझ सके कि ज़िन्दगी में हुई बड़ी से बड़ी बात भी एक छोटी सी ही है। जिन लोगों को हम फ़िक्र करने के लिए चुनते हैं, वो शायद सिर्फ अपने में व्यस्त रहते हैं, और जो वाकई हमारी फ़िक्र करते हैं, उनकी हमें फ़िक्र नहीं रहती।  चाँद पर ज़मीन ले लेंगे हम। मंगल पर घर बसाने का प्लान कर लिया हमने। पर किसी के दिल में ज़रा सी जगह न बना सके। कोई ऐसा अपने क़रीब न रख सके, जो उनको सुन लेता, जो उसकी ख़ैरियत पूछ लेता। ख़ैर…  

एक की ज़िन्दगी का नुक़सान तो लाखों के लिए ज़िन्दगी का सबक हो जाता है। एक इंसान के नाते हम सब रोज़ एक एग्ज़ाम देते हैं। कभी फेल होते हैं। कभी सिर्फ़ पासिंग मार्क्स आ जाते हैं। कभी डिस्टिंक्शन खींच लाते हैं। लेकिन ज़िन्दगी नहीं रुकती। चुनौतियाँ नहीं थमतीं।

हमारे अचीवमेंट्स हमारे बच्चे जानते हैं, ये अच्छी बात है। हम अपने स्ट्रगल भी बताते हैं ये भी ठीक, पर बच्चों को अपने फेलियर्स भी बताने बहुत ज़रूरी हैं ताकि वो कभी कहीं फेल हों तो उन्हें ये ही लगे कि माँ-बाप की तरह हम भी दुबारा, तिबारा, चौबारा कोशिश करने के लिए अभी जिंदा तो हैं कम से कम।

कोशिश कीजिए, कम से कम किसी एक अकेले कि वो उम्मीद बनने की जो उसे मरने न दे।
—- 
(कुन्दन जी, उज्जैन में रहते हैं। मूल रूप से मध्य प्रदेश के ही शुजालपुर के रहने वाले हैं। पुलिस विभाग के साथ जुड़कर जीवन-शैली से जुड़ी समस्याओं के निदान के काम किया करते हैं।)

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  • कुंदन जी आप ने बहुत गंभीर समस्या पर अपने विचार रखें हैं, हम सभी अपने आसपास अपने लोगों के दर्द साझा कर सकें तो निश्चित कोई अपनों को नहीं खोएगा।
    आप से आगे भी हम सार्थक लेख पढ़ने की इच्छा रखते हैं

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Neelesh Dwivedi

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