नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
‘एक देश-एक पंचांग’ या दूसरे शब्दों में ‘एक देश-एक त्योहार तिथि’, कुछ भी कह लीजिए। इस सन्दर्भ में निश्चित स्थिति तय किए जाने की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही है। यद्यपि ऐसा करना ठीक होगा या नहीं, शास्त्र में वर्णित व्यवस्था के अनुरूप होगा या नहीं, ये कुछ अलग विचारणीय प्रश्न हैं। मगर फिलहाल ‘एक देश-एक पंचांग’ की अपेक्षा करने वाले वर्ग का तर्क यह है कि हिन्दू सम्प्रदाय के कई त्योहार अक्सर अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से दो-दो तारीख़ों पर पड़ जाते हैं। जैसे- पिछले साल दीवाली कुछ जगहों पर 31 अक्टूबर को बताई गई और कहीं एक नवम्बर को। दोनों तारीख़ों पर दीवाली अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी अपनी सुविधा के हिसाब से मनाई भी गई। जबकि यह स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती। बल्कि भ्रमित करने वाली मानी जा सकती है।
लिहाज़ा, इस सन्दर्भ में प्रयागराज में चल रहे महाकुम्भ के दौरान सन्त समाज के बीच भी चर्चा हुई है। ख़बर है कि वहाँ अभी 27 जनवरी को ‘धर्म संसद’ होने वाली है। उसमें इस महत्त्वपूर्ण मसले पर विचार-विमर्श कर समाधान निकालने की क़ोशिश की जाएगी। हालाँकि, इसी दौरान इस महत्त्वपूर्ण मसले पर हिन्दू धर्म के चार शंकराचार्यों में से एक पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की प्रतिक्रिया आई, जो विचारणीय है। उन्होंने कहा, ”भारत में हिन्दू धर्म के जितने भी तीज-त्योहार हैं, उनकी तिथि को लेकर मतभिन्नता की स्थिति बनती है। इस दिशा में सुधार किए जाने की ज़रूरत है। पंचांग बनाने वालों को इस पर अधिक मेहनत करने की आवश्यकता है।”
शंकराचार्य की इस प्रतिक्रिया से कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं। इनमें पहला- क्या सिर्फ़ पंचांग बनाने वाले अपने विवेक से इस गम्भीर विषय में कोई समाधान ढूँढ़ सकते हैं? या फिर उन्हें सीधे तौर पर स्वयं शंकराचार्य और उनके जैसे ही अन्य विद्वानों के मार्गदर्शन की आवश्कता होगी? वह भी तब जबकि चार शंकराचार्यों की धर्म-पीठों में एक ज्योतिष-पीठ भी विद्यमान है, जिसके शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द हैं। वह देश में गौ-हत्या को प्रतिबन्धित कराने के लिए विशेष अभियान भी चला रहे हैं। तो क्या उन्हीं के नेतृत्त्व तथा मार्गदर्शन में ‘हिन्दू पंचांग’ से जुड़े इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर काम नहीं किया जाना चाहिए? इस तरह के प्रश्न उठने के अपने कारण हैं।
प्रश्नों का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण या कहें कि आधार तो यह है कि भारत वर्ष कोई समान देश-काल-परिस्थिति वाला देश नहीं है। यहाँ हर क्षेत्र में देश-काल-परिस्थिति, मौसम आदि सब अलग होता है। सम्भवत: यही बात ध्यान में रखकर पहले के पंचांग बनाए गए होंगे। सूर्य के उदित होने और अस्त होने का समय भी हर क्षेत्र में अलग होता है। चूँकि पंचांग बनाने के लिए की जाने वाली ‘ज्योतिषीय गणना’ में सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, आदि सबकी गतियों का ध्यान रखा जाता है, इसलिए भी अलग-अलग क्षेत्रों में मुहूर्त आदि स्थानीय पंचांगों में अलग बताए जाते रहे होंगे, ऐसा माना जा सकता है। इसी कारण, नाग-पंचमी मध्य प्रदेश में एक समय होती है, तो राजस्थान में अलग समय। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में हरितालिका तीज किसी महीने होती है तो राजस्थान में हरियाली तीज अन्य महीने में।
इस तरह की और भी स्थितियाँ हैं। मसलन- सूर्योदय को ही लें। सूर्योदय अगर पूर्व के राज्यों में मान लीजिए, सुबह 6.00 बजे होता है, तो वहाँ की तिथि की गणना का क्रम अलग हो सकता है। जबकि गुजरात के सुदूर पश्चिम में यदि सूर्योदय का समय सुबह 6.10 या 6.15 है तो वहाँ तिथि, मुहूर्त आदि की गणना का क्रम भिन्न हो सकता है। इसीलिए प्रश्न यह है कि पूरे देश के लिए एक समान पंचांग बनाते समय क्या ज्योतिष का कोई सामान्य जानकार अथवा पंचांग निर्माता इन सूक्ष्म बातों को ध्यान में रखकर उचित मानकीकरण (समानीकरण भी कह सकते हैं) कर पाएगा? इसके उत्तर में सन्देह का आधार बनता है। इसीलिए स्वयं शंकराचार्यों से अपेक्षाएँ है।
फिर आदि शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना कर उनके प्रमुखों के रूप में शंकराचार्यों को स्थापित किया भी तो इसीलिए था। कि जब भी हिन्दू धर्म के सामने ऐसी या अन्य तरह की भी कोई चुनौती उपस्थित हो तो वे ख़ुद आगे आकर सनातन सम्प्रदाय के लिए धर्म की राह प्रशस्त करें। इस वक़्त पूरब में जगन्नाथ पुरी की गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारका पुरी की शारदा पीठ, उत्तर में बद्रीनाथ की ज्योतिष पीठ और दक्षिण में रामेश्वरम की श्रंगेरी पीठ के शंकराचार्यों से एक आम सनातनी बस यही अपेक्षा करता है।
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