इंसान इतना कमज़ोर कैसे हो रहा है कि इस आसानी से अपनी ज़िन्दगी ख़त्म कर ले?

ज़ीनत ज़ैदाी, दिल्ली

अगर हमसे कोई सवाल करे कि हमारी ज़िन्दगी की कीमत क्या है? तो शायद ही इसका कोई ज़वाब हमारा पास होगा। क्योंकि जीवन एक वरदान है। यह न हमारी मर्ज़ी से हमें मिला है, और न हमारी मर्ज़ी से ख़त्म हो सकता है।

हम में से शायद ही कोई ऐसा हो जो ये दावा करे कि वह अपनी ज़िन्दगी से परेशान तो है, लेकिन उसे मौत से डर नहीं लगता। सच्चाई यही है कि अपने आख़िरी वक़्त में चाहे वह बच्चा हो, जवान या फिर एक बूढ़ा, महज़ कुछ पल और जीना चाहता है l क्योंकि ये मानव मनोविज्ञान है कि इंसान पूरी ज़िन्दगी अपनी मौत से ही भागता रहता है। भले वह अपने जीवन से कितना भी परेशान क्यों न हो।

इसके बावज़ूद हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग मिल ही जाते हैं, जो परेशानियों और हालाल से मज़बूर होकर अपनी ज़िन्दगी पर पूर्ण विराम लगाते हैं। जी हैं, मैं बात कर रही हूँ उनकी जो अपने जीवन का गला ख़ुद अपने हाथों से घोंट लेते हैं। मेरे जान-पहचान का ही एक लड़का जिसकी उमर लगभाग 18-19 साल होगी, उसने पिछले हफ़्ते फाँसी लगा ली। आत्महत्या की वज़ह किसी ने कर्ज़ बताई, किसी ने कोई रिश्ता और किसी ने उसका अकेलापन। सुनने में यह भी आया कि उसके ऊपर चालीस हज़ार (40,000) का कर्ज़ था।

लेकिन सवाल यह है कि क्या उसकी जान की कीमत 40,000 रुपए महज़ थी? क्या उसने नहीं सोचा कि उसके क़दम की क़ीमत उसके घरवालों के लिए कितनी बड़ी साबित होने वाली थी? ऐसे सवाल उठाने वाले हज़ारों लोग हैं, लेकिन इनके ज़वाब हम में से किसी के पास नहीं हैं। एक व्यक्ति जो आत्महत्या करने वाला है या करने की सोच रहा है, उसका दिमाग़ उस वक्त किस तरीक़े से काम कर रहा है, ये काफ़ी पेचीदा हो सकता है।

डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के मुताबिक, दुनिया में हर साल सात लाख 26 हजार लोग आत्महत्या करते है। यही नहीं, दुनियाभर में 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की मौत के मामलों में आत्महत्या तीसरा बड़ा कारण है। भारत में भी हालात बेहतर नहीं हैं। भारत में हर साल क़रीब एक लाख 71 हज़ार आत्महत्याएँ होती हैं। 

तो इतना गम्भीर आँकड़ा देखने के बाद सवाल उठता है कि जब दुनिया ने इतनी तरक्क़ी कर ली है कि हर काम चुटकियों में किया जा सकता है तो इंसान इतना कमज़ोर कैसे होता जा रहा है? इतना कि वह आसानी से अपनी ज़िन्दगी को ख़त्म कर ले? यह मुद्दा हम सबके लिए बहुत संगीन होना चाहिए, क्योंकि वह लोग जो आत्महत्या करते हैं वह हमारे ही बीच के  होते हैं। हम में से ही होते हैं। 

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(ज़ीनत #अपनीडिजिटलडायरी के सजग पाठक और नियमित लेखकों में से हैं। दिल्ली के आरपीवीवी, सूरजमलविहार स्कूल में 12वीं कक्षा में पढ़ती हैं। लेकिन इतनी कम उम्र में भी अपने लेखों के जरिए गम्भीर मसले उठाती हैं।अच्छी कविताएँ भी लिखती है। वे अपनी रचनाएँ सीधे #अपनीडिजिटलडायरी के ‘अपनी डायरी लिखिए’ सेक्शन या वॉट्सएप के जरिए भेजती हैं।)
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ज़ीनत के पिछले 10 लेख 

31 – कल स्कूल आएगी क्या? ये सफर अब ख़त्म हुआ!
30 – कैंसर दिवस : आज सबसे बड़ा कैंसर ‘मोबाइल पर मुफ़्त इन्टरनेट’ है, इसका इलाज़ ढूँढ़ें!
29 – choose wisely, whatever we are doing will help us in our future or not
28 – चन्द पैसों के अपनों का खून… क्या ये शर्म से डूब मरने की बात नहीं है?
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26 – बेहतर है कि इनकी स्थिति में सुधार लाया जाए, एक कदम इनके लिए भी बढ़ाया जाए
25 – ‘जल पुरुष’ राजेन्द्र सिंह जैसे लोगों ने राह दिखाई, फिर भी जल-संकट से क्यूँ जूझते हम?
24 – ‘प्लवक’ हमें साँसें देते हैं, उनकी साँसों को ख़तरे में डालकर हमने अपने गले में फ़न्दा डाला!
23 – साफ़-सफ़ाई सिर्फ सरकारों की ज़िम्मेदारी नहीं, देश के हर नागरिक की है
22 – कविता : ख़ुद के अंदर कहीं न कहीं, तुम अब भी मौजूद हो 

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