विश्व पृथ्वी दिवस : प्लास्टिकयुक्त होकर प्लास्टिकमुक्त कैसे होगा हमारा प्लेनेट?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

“सर प्लास्टिकमुक्त अभियान का क्या मतलब है? क्या कल से हम कोई प्लास्टिक की चीजें इस्तेमाल नहीं करेंगे?”, कक्षा में एक बच्चे ने अपने शिक्षक से प्रश्न किया। मैं वहीं से गुजर रहा था। बच्चे का प्रश्न सुना, तो कुछ देर ठिठका। लेकिन मेरी कक्षा का भी समय हो रहा था। इसलिए जल्दी आगे बढ़ गया। यह नहीं सुन सका कि शिक्षक ने बच्चे की जिज्ञासा को क्या कहकर शान्त किया। फिर भी, ऐसी जिज्ञासाएँ तो और बच्चों में भी होंगी ही। और ज़रूरी नहीं कि उन्हें उनकी जिज्ञासा शान्त करने वाला कोई योग्य व्यक्ति मिले ही। इसलिए सोचा कि मैं अपनी ओर से कुछ इस सन्दर्भ में समझने-समझाने का प्रयास करूँ। 

इस बाबत अथर्ववेद में ऋषि का कथन है, “माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः।” (अथर्ववेद 12.1.13) अर्थात् : भूमि (पृथ्वी) हमारी माता है, और हम इसकी सन्तान हैं।

कितनी सुन्दर संकल्पना है। माता जैसे अपने बच्चे का पोषण करती है, वैसे ही यह पृथ्वी हम सभी का पोषण करती है। इसीलिए यह हमारी माता और हम इसकी सन्तान। किन्तु आज समय बदल गया है। हमें भौतिक उन्नति चाहिए। इसलिए भूमि को माता मानने वाले देश में जंगल सिमटते जा रहे हैं। नदियाँ लुप्त हो रही हैं। जो बची हैं, वे प्रदूषित हो रही हैं। जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। मतलब माता (पृथ्वी) अपनी ही सन्तान (इंसान) के पैदा किए संकट से घिर चुकी है। इस संकट की गम्भीरता अभी भले हम इंसानों को पूरी तरह न दिखती हो, लेकिन देर-सवेर यह हमें भयानक रूप से अपनी चपेट में लेने वाला है, ये तय मानिए। 

निश्चित रूप से इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था ने हर साल 22 अप्रैल को ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ मनाने का सिलसिला शुरू किया। ताकि पृथ्वी की दशा-दुर्दशा के प्रति लोगों को जागरुक किया जा सके। उन्हें उसकी हालत में सुधार के क़दम उठाने के लिए प्रेरित किया जा सके। इसी क्रम में इस बार ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ पर नारा दिया गया है, ‘प्लेनेट बनाम प्लास्टिक’ यानि पृथ्वी ग्रह के विरुद्ध प्लास्टिक। इसे सीधे शब्दों में कहें तो धरती को प्लास्टिकमुक्त बनाने का लक्ष्य निर्धारित कर उसे हासिल करना। 

तय कार्यक्रम के अनुसार, इस वर्ष से ‘प्लास्टिकमुक्त पृथ्वी’ का लक्ष्य लेकर अभियान चलाया जाएगा। वर्ष 2040 तक पूरी धरती को प्लास्टिकमुक्त करने की संकल्पना है। हालाँकि इस संकल्पना और अभियान की वास्तविकता क्या है? जिन कार्यक्रमों में यह इस अभियान का ख़ाका खींचा गया, वहीं नीति नियन्ताओं की मेजों पर पानी की प्लास्टिक की बोतले सजी हुई नज़र आईं। प्लास्टिक के ही पात्रों में स्वल्पाहार वग़ैरा का भी इंतिज़ाम रखा गया। सो, अब कल्पना ही की जा सकती है इस अभियान का आगे क्या अंज़ाम होना है।  

मतलब यह अभियान फिलहाल वैसा ही नज़र आता है, जैसा सालों-साल से बीड़ी-सिगरेट जैसे तम्बाकू उत्पाद, शराब जैसी नशीली वस्तुओं के विरुद्ध अभियान चलाए जा रहे हैं। हर साल इनके विरुद्ध नए-नए नारे गढ़े जाते हैं। शराब की बोतलों, सिगरेट के पैकेटों, आदि पर चेतावनियाँ लिखी जाती हैं, ‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक’, ‘जानलेवा’, ‘कैंसर हो सकता है’, आदि-आदि। इन पर वीभत्स चित्र छापे जाते हैं। लेकिन एक सामान्य सा क़दम दुनिया के किसी देश की सरकार नहीं उठाती कि इन उत्पादों का उत्पादन ही बन्द कर दे। साेचिए कि जब बाज़ार में चीज उपलब्ध नहीं होगी, उसका उत्पादन ही नहीं होगा, तो उपयोग कैसे होगा?”

ऐसे में, लोग स्वाभाविक रूप से वैकल्पिक उत्पादों की तरफ़ जाएँगे ही। लेकिन नहीं। किसी सरकार में ऐसा कोई क़दम उठाने की मंशा नहीं दिखती। क्योंकि वास्तव में बाज़ारवाद उन्हें ऐसा करने से रोकता है। बल्कि वह तो प्रेरित करता है कि इस क़िस्म के तमाम उत्पादों को बदस्तूर चलने दिया जाए और उनके विरुद्ध अभियानों को भी बाक़ायदा हवा दी जाती रहे। क्योंकि इन अभियानों से भी अप्रत्यक्ष रूप से उनके प्रचार-प्रसार आदि में मदद मिलती है। उनके लिए और बड़ा बाज़ार तैयार होता है। उनकी आमदनी बढ़ती है।

अलबत्ता, एक वर्ग होगा यक़ीनन, जो गम्भीर प्रयास करता होगा। तो उस वर्ग को हमारी सनातन ज्ञान परम्परा की तरफ़ रुख़ करना होगा। उन्होंने देखना होगा कि हमारे ऋषियों ने, पूर्वजों ने किस तरह अपनी जीवनशैली को प्रकृति के साथ सम्बद्ध किया। कैसे धरती को माँ माना, तो उसकी भरपूर सेवा का भी ख़्याल रखा। आज हमें उन्हीं तौर-तरीक़ों को अपनाने की जरूरत है। पूर्वजों का अनुगमन करने की आवश्यकता है। अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमसे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण में रहने के लिए अभिशप्त होंगी। 

विचार कीजिएगा। 

#WorldEarthDay #PlanetVsPlastic

—— 
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)

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