टीम डायरी, 13/1/2022
बड़ा रोचक-सोचक है, इनका जमावड़ा। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक जगह है, शाहपुरा। वहीं के आसपास के यही कोई 65 से 85 साल के करीब 14-15 ‘युवा’, जी हाँ युवा ही, मंडली के किसी एक सदस्य के घर पर हर महीने जुटते हैं। कोशिश होती है, महीने की शुरुआत में ही यह जुटान हो जाए। इस दौरान गप्पें होती हैं। ठहाके गूँजते हैं। शेरो-शायरी, कविताओं के दौर चलते है। दिल की बात और जज़्बात भी साझा करते हैं। फिर दावत होती है। और इस दावत में जलेबी ज़रूर होती है।
जानते हैं क्यूँ? ताकि ये सभी आपस में यह याद रख सकें कि ‘ज़िन्दगी जलेबी की तरह’ है। टेढ़ी-मेढ़ी, उलझी हुई। लेकिन इसकी उलझन में उलझे बिना इसे बरता जाए (खाना भी समझ सकते हैं) तो उतनी ही कुरकुरी, स्वादिष्ट और मीठी भी। बस, यही इनकी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है, जिसे ये दूसरों के बीच भी बाँटते हैं। लोग उनके इस ‘जलेबी फ़लसफ़े’ को समझें, उसकी तरफ खिंचे चले आएँ, इसलिए इन्होंने अपने मंडली को नाम भी अलहदा दिया है, ‘जलेबी क्लब’। शायद यही नाम सुनकर एक स्थानीय अख़बार का ख़बरनवीस भी इनकी तरफ़ खिंचा चला गया और इनके बारे में बढ़िया सी जानकारी अपने पढ़ने वालों को मुहैया करा दी।
इस क्लब के सभी सदस्य रिटायर अफ़सर हैं। लेकिन जज़्बे से, इनमें न कोई ‘टायर्ड है, न रिटायर्ड’। मतलब न कोई थका हुआ है, न अपने आप को सेवा से निवृत्त समझता है। इसीलिए ऐसे आयोजनों के जरिए सिर्फ स्वयं-सेवा का ख़्याल नहीं रखते, समाज और पर्यावरण की फिक्र भी करते हैं। लिहाज़ा, जब इनकी मासिक-सभा विसर्जित होती है, तो मेज़बान की ओर से अन्य सभी सदस्यों को उपहार दिए जाते हैं। उपहार में पौधे, जिन्हें वे कहीं रोप सकें। और अच्छी किताबें भी, जिनको वे पढ़ और पढ़ा सकें।
तो हुए न ये ‘युवा’? जिस दौर में हम हैं और जिसकी तरफ़ जा रहे हैं, सच कहें तो ऐसे युवाओं की बहुत ज़रूरत है। हम सभी को।
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