क्या वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड बाद में कभी जोड़े गए?

कमलाकांत त्रिपाठी, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश से

वाल्मीकीय रामायण के मूल स्वरूप के निर्धारण में प्रक्षिप्त की पहचान के लिए सामान्यत: संस्कृत के ऐसे प्रकाण्ड विद्वान की ज़रूरत होनी चाहिए जो भाषाविज्ञान का भी विशेषज्ञ हो। लेकिन, आप देखेंगे, वाल्मीकीय रामायण के विशेष सन्दर्भ में प्रक्षिप्त की जो प्रकृति है, उसके मद्देनज़र प्रकाण्ड संस्कृतज्ञ-कम-भाषाविज्ञान-विशेषज्ञ की तलाश में सत्तू-पिसान बाँधकर निकलने की ज़रूरत नहीं। रामायण की अन्तर्वस्तु, यहाँ तक कि मात्र विषय-सूची, के एक सरसरी पाठ से जो चीज़ स्पष्ट हो जाए उसके लिए विशेषज्ञ को कष्ट क्यों देना? रहीम जी कह ही गए हैं–जहाँ काम आवे सुई कहा करै तरवारि।

रामायण का शब्दिक अर्थ है राम की यात्रा। अयन का आद्य अर्थ है चलना, जाना (अय्‌ +ल्युट्‌)। वामन शिवराम आप्टे ने अपने (सर्वसुलभ) ‘संस्कृत-हिंदी कोष’ में इस आद्य अर्थ के उदाहरण में ही रामायणम्‌ का उल्लेख कर दिया है। आप्टे ने अयन का दूसरा अर्थ दिया है मार्ग या पथ, वह भी उपरोक्त आद्य अर्थ से सम्बद्ध है। अयन के शेष अर्थ प्रसंगानुरूप इतने भिन्न-भिन्न हैं कि प्रस्तुत सन्दर्भ के लिए सर्वथा अप्रासंगिक हैं।

जब ‘राम की यात्रा’ की बात होगी तो स्पष्ट है, एक ही यात्रा अभीष्ट होगी। राम-लक्ष्मण द्वारा विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के लिए की गई एक और यात्रा का विवरण उपलब्ध है, जिसमें इन दोनों के ही नहीं, चारों भाइयों के एक साथ विवाह का भी संयोग बैठ जाता है। किन्तु जब एक ही यात्रा अभीष्ट हो तो निश्चय ही राम वनगमन, जिसमें सीता-हरण प्रसंग के कारण लंका-यात्रा भी जुड़ गई, एकमात्र उद्दिष्ट यात्रा होनी चाहिए। और राम की यह यात्रा अयोध्याकाण्ड से शुरू होकर युद्धकाण्ड में राम के अयोध्या लौटने और उनका राज्याभिषेक होने पर पूरी हो जाती है। एक राज्याभिषेक की (निष्फल) तैयारी (अयोध्याकाण्ड) से दूसरे राज्याभिषेक (युद्धकाण्ड) के सम्पन्न होने में 14 वर्षों का लम्बा अन्तराल है। और वही है राम की कठिन यात्रा जो वाल्मीकीय रामायण का प्रतिपाद्य है। तो वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड कहाँ से आ गए? ऐसा तो नहीं हो सकता कि लौकिक संस्कृत के आदिकवि को रामायण शब्द का अर्थ न ज्ञात रहा हो। तो सवाल है, वाल्मीकि ने आदिकाव्य लिखते समय उसका नामकरण रामचरितम्‌ के बजाय रामायण क्यों किया होगा?

संस्कृत में चरितम्‌ (चरित्रम्‌ से थोड़ा भिन्न) शब्द का भी एक अर्थ गमन करना, हिलना-डुलना है। किन्तु संस्कृत की रचनाओं के नामकरण के सन्दर्भ में यह शब्द जीवनी या जीवनचरित के एकमात्र अर्थ में रूढ़ हो गया है। नैषधीयचरितम्‌ (श्रीहर्ष का महाकाव्य), उत्तररामचरितम्‌ (भवभूति का नाटक), दशकुमारचरितम्‌ (दण्डी का गद्यकाव्य), हर्षचरितम्‌ (बाणभट्ट का गद्यकाव्य), बुद्धचरितम्‌ (अश्वघोष का महाकाव्य) इसके कुछ प्रसिद्ध उदाहरण हैं। चरितम्‌ में पूरे जीवन का आख्यान होता है। तुलसी ने रामकथा पर भाषा (अवधी) में लिखे गए अपने प्रबंध का नाम रखा रामचरितमानस। निहितार्थ, राम के सम्पूर्ण जीवन का आख्यान।

अपने प्रबन्ध के शुरू में ही उन्होंने वाल्मीकीय रामायण का उल्लेख करते हुए लिख दिया था–‘यद्‌ रामायणे निगदितम्‌ क्वचिदन्यतोsपि‘ (जो वाल्मीकीय रामायण में वर्णित है वह तथा कुछ और)। तुलसीदास संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। यह तो सम्भव नहीं कि उन्हें रामायण शब्द के अपेक्षाकृत सीमित अर्थ का एहसास न रहा हो। ऐसे में क्वचिदन्यतोsपि तो अपरिहार्य था। इस तरह रामचरितमानस में बालकाण्ड और उतरकाण्ड का समावेश क्वचिदन्यतोsपि के अनुरूप ही है। किन्तु द्रष्टव्य यह है कि तुलसी ने अपने प्रबन्ध के उत्तरकाण्ड में (सम्प्रति प्रचलित) वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड का कोई प्रसंग नहीं लिया और उसे ज्ञान-भक्ति विवेचन पर ख़र्च कर दिया। इस तरह तुलसी को विवादित शम्बूक-वध और सीता-निर्वासन प्रसंग से स्वत: छुटकारा मिल गया। किंतु ‘यद्‌ रामायणे निगदितं…’ में तो उन्होंने कुछ अतिरिक्त लेने की बात कही थी, कुछ छोड़ने की नहीं। एकमात्र निहितार्थ– तुलसी को मूल वाल्मीकीय रामायण में उत्तरकाण्ड के न होने का आभास। या सन्देह। यह उनके इष्टदेव मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रति अखण्ड सम्मान के अतिरिक्त अन्य कारण हो सकता है।

आप पाएँगे कि वाल्मीकीय रामायण के अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक की कथा पूर्णत: सुसम्बद्ध है, आद्यन्त एक सूत्र में पिरोई हुई, निरन्तर आगे बढ़ती है, बाएँ-दाएँ या लौटकर पीछे नहीं जाती। पूरी कथा राम पर केन्द्रित है। राम, उनके जीवन के घटित और उनसे जुड़े पात्रों पर लगातार फ़ोकस बनाए रखती है, एक भी असम्बद्ध, अवांतर प्रसंग नहीं आता। इसके ठीक विपरीत बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में अवांतर प्रसंग ही भरे हुए हैं। ख़ास पौराणिक शैली में परस्पर असम्बद्ध, भाँति-भाँति के आख्यानों का बेतरतीब जमावड़ा, जिनका रामकथा से कोई लेना-देना नहीं। इन काण्डों के शेष अंश में रामायण के ही कुछ प्रसंगों की पुनरावृत्ति होती है। किन्तु उनमें कुछ जोड़कर, उनका रूप बदलकर। इन काण्डों की मात्र विषयसूची पर एक निगाह डाल लेने से स्पष्ट हो जाएगा कि ये दोनों काण्ड उस व्यक्ति द्वारा लिखे हुए कदापि नहीं हो सकते जिसने अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक राम की बहुचर्चित यात्रा को पूर्वापर सुसम्बद्ध, उतरोत्तर अग्रगामी, एकल सूत्र में बँधी, सुगम संस्कृत के सरल साहित्यिक सौदर्य की झलक देती, प्रवहमान भाषा में, प्रकृति, और मानवीय भावों के सूक्ष्म को कुशलता से उभारती, एक उत्कृष्ट कथा का रूप दिया है।

इन दो काण्डों में मूल रामायण (अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड) के किसी प्रसंग की पुनरावृत्ति में कथा की अन्विति, उसकी मर्यादा, उसके सौष्ठव को प्रसंग के इतर विवरणों ने किस तरह स्खलित किया है इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा—

युद्धकाण्ड का अन्तिम (128वाँ) सर्ग। इस सर्ग के वर्ण्य विषय हैं–भरत द्वारा राम को राज्याधिकार का हस्तान्तरण {भरत के अनुसार राज्य उनके पास महज़ न्यास (ट्रस्ट) में होने से उसका प्रत्यर्पण}, राम द्वारा नगर-भ्रमण, राम का राज्याभिषेक, उपहार देकर ससम्मान विभीषण एवं वानरों की विदाई तथा रामायण की फलश्रुति (जो हमेशा ग्रंथ के अन्त में आती है)।

युद्धकाण्ड में विभीषण और वानरों की विदाई

“…..तत्पश्चात्‌ राजा राम ने अपने मित्र सुग्रीव को एक दिव्य, मणिजटित, सूर्य की किरणों की तरह प्रकाशवान्‌ स्वर्णहार उपहार दिया। उसके बाद धैर्यशाली रघुवीर ने बालिपुत्र अङ्गद को कंगन भेंट किए। इनमें चित्र-विचित्र नीलम जड़े थे, जो चन्द्रकिरणों से विभूषित लग रहे थे। वायुदेव द्वारा राम को उपहार में दिया गया, चन्द्रकिरणों से प्रकाशित, मुक्ताहार राम ने सीता के गले में डाल दिया…सीता ने पति की ओर देखकर संकेत में वायुपुत्र हनुमान्‌ को कुछ उपहार देने की इच्छा व्यक्त की। राम की आज्ञा पाकर सीता ने वह मुक्ताहार हनुमान्‌ को भेंट कर दिया। इसी प्रकार जितने भी प्रधान वानरवीर थे, सबका वस्त्रों एवं आभूषणों से यथोचित सम्मान किया गया। और तब—

विभीषणोsथ सुग्रीवो हनूमाञ्जाम्बवांस्तथा। सर्वे वानरमुख्याश्च रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥85॥
यथार्हं पूजिता: सर्वे कामै रत्नैश्च पुष्कलै:। प्रहृष्टमनस: सर्वे जग्मुरेव यथागतम्‌।।86॥

[अतिशय क्लिष्ट कर्म से निवृत्त हुए राम ने विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्‌ तथा जाम्बवान्‌ आदि सभी श्रेष्ठ वानरवीरों का उनकी मनोवाञ्छित वस्तुओं एवं प्रचुर रत्नों से यथोचित सम्मान किया। वे सब प्रसन्न होकर, जैसे आए थे, उसी तरह अपने-अपने निवासस्थान को लौट गए।]

अब यही प्रसंग उत्तरकाण्ड में देखिए… 

(प्रक्षिप्त?) उत्तरकाण्ड के सर्ग 37, 38, 39 और 40 में राज्याभिषेक, सभासदों के साथ बैठक और वानरों आदि की विदाई का प्रसंग पुन: आता है। पहला प्रश्न तो यही उठता है कि विदाई दुबारा क्यों? किन्तु यह प्रश्न गौण है। महत्त्वपूर्ण यह है कि उत्तरकाण्ड में यह प्रकरण अनपेक्षित, अमर्यादित और कृत्रिम विवरणों के समावेश से अनावश्यक विस्तार पाता है; उसका एक विचित्र रूप सामने आता है।

उत्तरकाण्ड में पुनर्वर्णित राज्याभिषेक समारोह में भरत द्वारा बुलाए जाने पर राजा जनक सहित दूर-पास के अनेक राजा भी उपस्थित होते हैं (इतना समय था?)। वे सब अपनी बड़ी-बड़ी (कई अक्षौहिणी) सेनाओं के साथ युद्ध के लिए उद्यत होकर (?) आते हैं (39-1)। उनकी विदाई होने पर वापस लौटते समय वे आपस में बे-सिर-पैर की गर्वीली बातें करते हैं–हमने तो राम और रावण को युद्ध में आमने-सामने खड़े देखा नहीं। भरत ने हमें पहले सूचना ही नहीं दी। बाद में (राम-रावण) युद्ध समाप्त हो जाने पर व्यर्थ ही हमें बुलाया। हम सभी युद्ध में भाग लेने गए होते तो नि:सन्देह सभी राक्षसों का शीघ्रता से संहार हो जाता। हम लोग भी समुद्र के उस पार राम-लक्ष्मण के नेतृत्त्व में भलीभाँति युद्ध कर सकते थे (39–3,4,5)। फिर इन राजाओं ने वापस अपनी-अपनी राजधानियों में पहुँचकर नाना प्रकार के रत्न और उपहार भेजे (साथ क्यों नहीं लाए थे?)। उपहारों में घोड़े, हाथी, उत्तम कोटि का चन्दन, आभूषण, मणि, मोती, मूँगा, बहुत सारे रथ थे। और तो और, रूपवती दासियाँ, नाना प्रकार की बकरियाँ और भेड़ेँ भी थीं (39–7,10‌)। (हास्यास्पद)

भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न उन रत्नों को लेकर अयोध्या पुरी पहुँचते हैं (लिया किस जगह?) और राम को समर्पित कर देते हैं (39-11,12)। राम उन सब उपहारों को विभीषण, अन्य राक्षसों (युद्धकाण्ड के उपरोक्त प्रकरण में ‘अन्य राक्षसों’ का उल्लेख नहीं है, क्या वे भी राम के साथ आए थे?) और वानरों में वितरित कर देते हैं क्योंकि उन्ही के सहयोग से राम ने युद्ध में विजय प्राप्त की थी (39-13,14)। उन सभी ने तत्काल उन रत्नों और आभूषणों को अपने मस्तक और भुजाओं पर धारण भी कर लिया (39-15)।

इसके बाद जो होता है, वह तो अजीबोग़रीब समाँ उपस्थित करता है…

राम ने महाबाहु हनुमान और अङ्गद को गोद में बिठाकर सुग्रीव से कहा–सुग्रीव जी, अङ्गद आपके सुपुत्र हैं और हनुमान आपके मन्त्री। ये दोनों मेरे लिए भी मन्त्री का काम करते रहे और मेरे हित-साधन में लगे रहे। इसलिए और आपके सम्बन्ध के नाते, ये मेरी ओर से आदर-सत्कार और उपहार पाने के हक़दार हैं (अन्यथा न होते?)। ऐसा कहकर राम ने अपने शरीर से बहुमूल्य आभूषण उतारकर अङ्गद और हनुमान्‌ के अङ्गों में बाँध दिया (39–16-19)। फिर राम ने अन्य वानर यूथपतियों–नील, नल, जाम्बवान् तथा 17 अन्य के नामों का उल्लेख है (ये नाम कहाँ मिले?) को बुलाकर मधुर वाणी में कहा–वानरवीरो, आप लोग मेरे मित्र, मेरे शरीर और मेरे बन्धु हैं। आपने ही मुझे संकट से उबारा। आप जैसे श्रेष्ठ मित्रों को पाकर राजा सुग्रीव धन्य हैं। (39–20-24)। ऐसा कहने के बाद राम ने उन्हें यथायोग्य आभूषण और बहुमूल्य हीरे (वज्र) देकर उनका आलिङ्गन किया (39–25)।

लेकिन यह अभी उनकी विदाई नहीं थी…

इसके बाद पिङ्गलवर्णी वानर अयोध्या में सुगन्धित मधु का पान करते, राजभोग की वस्तुओं का भोग करते, साथ ही स्वादिष्ट फल-मूल खाते, उपस्थित दिखाई पड़ते हैं। लिखा है, वे एक महीने से अधिक रह गए और इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की सुरम्य राजधानी में बड़े आनन्द और प्रेम से समय बिताया। फिर लिखा है, इस तरह शिशिर ऋतु का दूसरा महीना बीत गया (शुरुआत किस ऋतु में हुई थी?) (39–26-30)। विभीषण और उनके साथ के राक्षस भी वानरों के साथ वहीं पड़े रहे। किन्तु वे क्या करते रहे, कोई उल्लेख नहीं।

इसके उपरान्त राम ने रीछों, वानरों और राक्षसों (?) के प्रतिनिधि के तौर पर सुग्रीव को सम्बोधित करते हुए स्वयं उनसे प्रस्थान करने के लिए कहा (कितना अमर्यादित!)–अब आप देवताओं और असुरों के लिए भी अजेय अपनी किष्किंधापुरी जाएँ और मन्त्रियों के साथ रहते हुए, निष्कंटक वहाँ का राज्य करें (40–2)। फिर राम ने एक ‘भाषण’ दिया जिसमें उन वानरों का नाम ले-लेकर, जिन्होंने युद्ध में विशेष पराक्रम दिखाया था, सुग्रीव को उनका विशेष ध्यान रखने के लिए हिदायत दी।

बारम्बार सुग्रीव का आलिङ्गन किया (40–3-9)। फिर राम मधुर वाणी में विभीषण से बोले (ये कहाँ से प्रकट हो गए?), दरअसल विभीषण को सावधान किया–मेरे विचार से तुम धर्मज्ञ हो। तुम्हारे भाई कुबेर भी तुम्हें धर्मज्ञ मानते हैं। तुम्हारे नगर के राक्षस भी तुम्हें धर्मज्ञ मानते हैं। इसलिए धर्मानुसार लङ्का का शासन करो। कभी अधर्म में मन मत लगाना। जो राजा बुद्धिमान होता है, वही दीर्घकाल तक पृथ्वी का राज्य भोगता है। सुग्रीव-सहित तुम भी मुझे हमेशा याद रखना। अब निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक यहाँ से जाओ (पुन: अमर्यादित) (40–10-12)। राम का भाषण सुनकर, रीछ, वानर, और राक्षस उन्हें धन्य-धन्य करने लगे। उन लोगों ने कहा (एक स्वर से?) महाबाहु श्रीराम, स्वयंभू ब्रह्मा की तरह आपके स्वभाव में सदा अतिशय मधुरता रहती है। आपकी बुद्धि और पराक्रम अद्भुत हैं (40-14)।

लेकिन राक्षसों और वानरों के जाने का मुहूर्त अब भी नहीं आया। बीच में हनुमान्‌ जी खड़े हो गए। राम का गुणगान करने लगे। उनके प्रति अपनी भक्ति का वरदान माँगने लगे। बीच में (बाल-ब्रह्मचारी) हनुमान्‌ ने यह भी माँग रख दी, “हे रघुकुलनंदन, नरश्रेष्ठ राम, यह जो आपका दिव्य चरित्र और दिव्य कथा है, अप्सराएँ इसे गाकर मुझे सुनाया करें” (40-18)। अन्त में राम सिंहासन से उठकर खड़े हो गए। हनुमान्‌ को हृदय से लगा लिया। उनके प्रति विशेष कृतज्ञता व्यक्त की और अपने गले का चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार निकालकर हनुमान्‌ जी के गले में पहना दिया (40–20-25)।

अब जाकर सम्पन्न होती है विदाई…

सुग्रीव और विभीषण राम को हृदय से लगाकर उनका प्रगाढ़ आलिंगन करने के बाद विदा हुए। सभी अपने नेत्रों से आँसू बहाते हुए राम के भावी विरह से व्यथित हो उठे (40–28)। राम को छोड़कर जाते हुए सभी अतीव दु:ख के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ और अचेत-से हो रहे थे। गला रुँध जाने से कोई कुछ बोल नहीं पा रहा था, बस सभी की आँखों से आँसू झर रहे थे। किंतु राम द्वारा कृपा और प्रसन्नतापूर्वक विदा दिए जाने पर सभी वानर विवश होकर उसी प्रकार अपने-अपने घर गए, जैसे जीवात्मा विवशता में शरीर छोड़कर परलोक जाता है। वे राक्षस, रीछ और वानर रघुवंश की वृद्धि करनेवाले राम को प्रणाम करके, नेत्रों में वियोग के आँसू लिये अपने-अपने निवासस्थान को लौट गए (40–29-31)। (पुनरुक्ति और अतिकथन?)

यदि अवान्तर और असम्बद्ध पौराणिक आख़्यानों के अतिरिक्त इस तरह की पुनरावृत्तियों के ऊटपटाँग, अमर्यादित और अराजक विस्तार को आप आदिकवि वाल्मीकि-कृत मान सकते हैं तो उत्तरकाण्ड और बालकाण्ड को वाल्मीकीय रामायण का हिस्सा ज़रूर मानते रहें और सीता-निर्वासन तथा शम्बूक-वध जैसे अयुक्तिपूर्ण, प्रतिगामी प्रसंगों को लेकर उन पर आक्षेप भी लगाते रहें।

अभी और भी है, बहुत कुछ है। युद्धकाण्ड के अन्त में फलश्रुति, उत्तरकाण्ड और बालकाण्ड में अन्य पुरुष में स्वयं वाल्मीकि की कथा घुसाकर उन्हें राम का समकालीन सिद्ध करने की चेष्टा, उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों में इन दोनों काण्डों को लेकर अनेक विसंगतियाँ, प्राचीन दाक्षिणात्य प्रति में अयोध्याकाण्ड को आदिकाण्ड बताते हुए केवल पाँच काण्डों का समावेश..और भी बहुत कुछ।
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(उत्तर प्रदेश की गोरखपुर यूनिवर्सिटी के पूर्व व्याख्याता और भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे कमलाकांत जी ने यह लेख मूल रूप से फेसबुक पर लिखा है। इसे उनकी अनुमति से मामूली संशोधन के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। इस लेख में उन्होंने जो व्याख्या दी है, वह उनकी अपनी है।) 
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