शिवाजी महाराज : अपने बलिदान से एक दर्रे को पावन कर गए बाजीप्रभु देशपांडे

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

कल-कल बहती आषाढ़ की धाराओं के साथ मावलों का खून बह रहा था। एक हो रहा था। उधर, बीच राह की कासारी नदी और नाले-पनाले पार कर महाराज दौड़े चले जा रहे थे। जल्दी से जल्दी किले पर पहुँचकर तोप दागकर अपने पहुँचने का इशारा देना था। इसलिए महाराज लगातार अधक चल रहे थे। उन्हें ख्याल था कि मुट्‌ठी पर फौज के सहारे मेरे बाजी हजारों के खूनी हमले सीने पर झेल रहे हैं। यह सोच-सोच कर महाराज के दिल पर बरछियाँ चल रही थीं। इसी हाल में भागते-दौड़ते महाराज किले के नीचे पहुँच गए।

लेकिन अभी वे राहत की साँस लेने ही वाले थे कि दुर्भाग्य आड़े आया। सूर्यराव सुर्वे और जसवंतराव दलवी ने महाराज पर हमला कर दिया। ये हमारे अपने हो थे। लेकिन बादशाह की चाकरी की खातिर स्वराज्य से बैर ताने बैठे थे। जन्म से ही जन्मपत्रिका में घुसे पापग्रह थे मानो। इन सरदारों ने पहले से ही विशालगढ़ को घेर रखा था। महाराज को इसका अन्दाजा भी नहीं था। बाहर की खबरें पन्हालगढ़ तक आ ही नहीं पाती थीं। सो, अब सुर्वे और दलवी ने महाराज की राह रोक ली। घमासान लड़ाई होने लगी।

उधर बाजीप्रभु छटपटा रहे थे। घेड़खिंड़ दर्रे में शादी के शामियाने की तरह धूमधाम थी। बाजी के प्राण कानों में अटके थे। वे इंतजार कर रहे थे मुहूर्त की तोपों का। तलवारें गौरीहर की, शिवशंकर की पूजा कर रही थीं। हर-हर महादेव, हर-हर महादेव की गूँज चहुँओर सुनाई दे रही थी। बाजी ने मसूद को रोक रखा था। शाम घिर आई थी। लेकिन महाराज अब तक किले पर पहुँच नहीं पाए। आखिर क्या बात हुई? बाजी के दिमाग में यही ख्याल छाया था। इधर, अँधेरा गहराने लगा। फिर भी दरें में लड़ाई जारी थी। चंद्रज्योत जलाकर उसके उजाले में सिद्दी मसूद ने हमले जारी रखे थे।

तभी अवरोध नष्ट हुआ। सुर्वे, दलवी का घेरा तोड़कर महाराज विशालगढ़ पहुँच गए। दरें में अब तक जान की बाजी लगाकर मावले जूझ ही रहे थे। लगभग 21 घंटों से अप्रतिहित रूप से वे परिश्रम कर रहे थे। पहले दौड़ते समय और बाद में लड़ते समय। बाजी की जान तोप के इशारे की आवाज सुनने को बेताब थी। महाराज किले पर पहुँच गए। तोपों की आवाज गूँज उठी। दर्रे तक पहुँच गई। बाजी के मन में आनन्द की लहरें उठने लगीं। उनका काम बन गया।

इतने में अचानक बाजी के सीने से तलवार टकराई। जोरदार आघात से बाजी लड़खड़ा गए। नीचे गिर गए। सीना फट पड़ा। फिर भी बाजी के होठों पर हँसी थी। स्वामी काज में काम आया। अब खुशी-खुशी जाता हूँ। यही खुशी की बात थी। गजापुर का दर्रा पावन हो गया था। यह तारीख थी 13 जुलाई 1660 की। वक्त शाम के करीब 7:30 बजे के आस-पास का था। घने पेड़ों पर निर्जन एकान्त में सह्याद्रि की गोद में खड़ी है यह घेड़खिंड़। बाजीप्रभु देशपांडे और उनके मावले साथियों ने, यहाँ स्वातंत्र्य के उगते सूरज को अपने रक्त का अर्घ्य अर्पित किया था।

बाजीप्रभु की वीरगति की खबर विशालगढ़ पर पहुँच गई। महाराज पर वज्राघात हुआ। उनका एक अनमोल मोती मृत्यु ने निगल लिया। शोक से महाराज का हृदय छलनी हो गया था। पुणे जिले में ‘भोर’ के पास एक गाँव है ‘सिंद’। वहाँ के रहने वाले कायस्थ थे बाजीप्रभु देशपांडे। इनकी कलम और वलवार दोनों ही स्वामीनिष्ठ थीं। इसीलिए शिवाजी राजे की माला के अनमोल मोती थे बाजी। इतिहास ही जानता है कि इस जंग के समय उनकी निश्चित आयु क्या थी। लेकिन अंदाजन वे उस समय 50 से कम के नहीं होंगे।

बाजीप्रभु आन-बान वाले आदमी थे। सवा साल पहले महाराज ने बाजी प्रभु को आज्ञा दी थी कि हिरडस मावल के कासलोडगढ़ (‘कावला’ गढ़ किले) पर सैनिकी थाना बनाना है। सो, किले को मजबूत बनाया जाय (दिनांक 13 मई 1656)। महाराज ने बाजी को यह भी लिखा था कि गढ़ का नाम ‘मोहनगढ़’ रखा जाय। बाजीप्रभु ने वह भी कर दिखाया थाा। वे हर काम मन लगाकर करते थे। वैसे ही तन-मन से उन्होंने पन्हाला से विशालगढ़ भाग निकलने में शिवाजी महाराज की मदद भी की थी।

और घेड़खिंड़। इसे गजापुर की घाटी, गजापुर का दर्रा-खिंड़ भी कहते हैं। गजापुर गाँव विशालगढ़ की पूर्वी तलहटी में है। और दर्रा, गजापुर की आग्नेय दिशा में है। सदियों से बहते पानी ने इस दर्रे में बड़ी-बड़ी चट्टानें गिरा दी हैं। उनके कारण दर्रे की दोनों तरफ पहाड़ी चोटियाँ सी तन गई हैं। ‘पांढर पाणी’ गाँव से विशालगढ़ की तरफ जाते समय यह दर्रा बीच में पड़ता है। यहाँ से विशालगढ़ चार कोस दूर है।

‘पांढर पाणी’ से दर्रे तक पक्का रास्ता बना था। अभी भी यहाँ फर्श वाले रास्ते के चौड़े टुकड़े मिलते हैं। इससे यह जाहिर है कि सुल्तानी अमल में (शायद उससे पहले के यादव शिलाहारों के काल में) पन्हालगढ़ से खेलणा यानी विशालगढ़ जाने वाला रास्ता इसी घेड़खिंड़ से होकर गुजरता होगा। चारों तरफ से कूदते पहाड़ी झरनों का पानी इस दर्रे में से कल-कल निनाद करते हुए बहता है और आधे या पौने कोस की दूरी पर बहती कासारी नदी में जा मिलता है।

दरें की चौड़ाई दो भालों जितनी है। इसके दोनों ओर खड़ी सीधी काली चट्टानें काफी ऊँची है। दरें में से नीचे जाने वाला रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा है। एकान्त में खामोशी से यह संकरा दर्रा चुपचाप खड़ा है। इसी के मुहाने पर लगातार सात घंटे बाजीप्रभु देशपांडे और हिरडस मावल के जवान, सिद्दी मसूद से लोहा ले रहे थे। बाजीप्रभु के बलिदान से इस दर्रे को समाधि का पावित्र्य और सती का गाम्भीर्य मिला है। इसीलिए इसे अब पावनखिंड़ कहने का रिवाज हो गया है।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
23- शिवाजी महाराज :.. और सिद्दी जौहर का घेरा तोड़ शिवाजी विशालगढ़ की तरफ निकल भागे
22- शिवाजी महाराज : शिवाजी ने सिद्दी जौहर से ‘बिना शर्त शरणागति’ क्यों माँगी?
21- शिवाजी महाराज : जब 60 साल की जिजाऊ साहब खुद मोर्चे पर निकलने काे तैयार हो गईं
20-  शिवाजी महाराज : खान का कटा हुआ सिर देखकर आऊसाहब का कलेजा ठंडा हुआ
19- शिवाजी महाराज : लड़ाइयाँ ऐसे ही निष्ठावान् सरदारों, सिपाहियों के बलबूते पर जीती जाती हैं
18- शिवाजी महाराज : शिवाजी राजे ने जब अफजल खान के खून से होली खेली!
17- शिवाजी महाराज : शाही तख्त के सामने बीड़ा रखा था, दरबार चित्र की भाँति निस्तब्ध था
16- शिवाजी ‘महाराज’ : राजे को तलवार बहुत पसन्द आई, आगे इसी को उन्होंने नाम दिया ‘भवानी’
15- शिवाजी महाराज : कमजोर को कोई नहीं पूछता, सो उठो! शक्ति की उपासना करो
14- शिवाजी महाराज : बोलो “क्या चाहिए तुम्हें? तुम्हारा सुहाग या स्वराज्य?
13- शिवाजी ‘महाराज’ : “दगाबाज लोग दगा करने से पहले बहुत ज्यादा मुहब्बत जताते हैं”
12- शिवाजी ‘महाराज’ : सह्याद्रि के कन्धों पर बसे किले ललकार रहे थे, “उठो बगावत करो” और…
11- शिवाजी ‘महाराज’ : दुष्टों को सजा देने के लिए शिवाजी राजे अपनी सामर्थ्य बढ़ा रहे थे
10- शिवाजी ‘महाराज’ : आदिलशाही फौज ने पुणे को रौंद डाला था, पर अब भाग्य ने करवट ली थी
9- शिवाजी ‘महाराज’ : “करे खाने को मोहताज… कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो”
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी

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Neelesh Dwivedi

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