‘बिकाऊ बाज़ारू माल’ को व्यापारी ‘ख़राब’ कहता है क्या, फिर गूगल-फेसबुक क्यों कहेंगे?

टीम डायरी

ज़्यादा हलचल तो नहीं हुई, लेकिन कुछ छोटी-मोटी सुर्ख़ियाँ बनी थीं। अभी चार-पाँच दिन पहले की बात है। ख़बर आई कि गूगल ने यूरोपीय संघ (ईयू) का एक कानून मानने से मना कर दिया है। कानून क्या है? यह कि गूगल जैसे जितने भी मंच हैं, चाहे यूट्यूब हो, फेसबुक, इंस्टग्राम, या एक्स आदि, उन सबको अपने यहाँ आने वाली सूचनाओं की छाँट-बीन करनी होगी। साथ ही यह बताना होगा कि अमुक सूचना सही है और अमुक ग़लत या संदिग्ध। वैसे ही जैसे गीला, सूखा, जैविक, रासायनिक, चिकित्सकीय कचरे को अलग-अलग किया जाता है। 

लेकिन यूरोपीय आयोग की तकनीकी शाखा के अधिकारी रीनेट निकोलॉय को लिखे पत्र में गूगल ने कह दिया कि वह सूचनाओं की छाँट-बीन (आधुनिक शब्दावली में फैक्ट चैकिंग) का तंत्र स्थापित नहीं करेगी। उसके सर्च इंजन, यूट्यूब आदि पर आने वाली सामग्री को विश्वसनीय, अविश्वसनीय, सच्ची, झूठी जैसी श्रेणी में नहीं बाँटा जाएगा। सूचनाओं का न इन आधारों पर क्रम तय किया जाएगा, न इन्हें हटाया जाएगा। गूगल के वैश्विक मामलों के अध्यक्ष केन्ट वॉकर की ओर से लिखे पत्र में कहा गया कि कम्पनी की मौजूदा व्यवस्था ही कारगर है। 

दिलचस्प बात है कि इसी तरह का इंकार फेसबुक, इंस्टाग्राम, जैसे मंचों का संचालन करने वाली कम्पनी ‘मेटा’ ने भी किया है। साथ ही, ‘एक्स’ ने भी, जो पहले ट्विटर हुआ करती थी। बल्कि बताया तो यह भी जाता है कि इन कम्पनियों ने सूचनाओं की छाँट-बीन का जो हल्का-फुल्का तंत्र पहले कभी स्थापित किया था, अब वे उसे भी कम करने लगीं हैं। पूरी तरह उसे हटाने की प्रक्रिया में हैं। यह सब ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के नाम पर किया जा रहा है। मतलब, जिसके जो मन में आए वह इन मंचों पर करता रहे, उस पर कोई रोक-टोक न होगी। 

ऐसे में यहाँ सवाल हो सकता है कि दुनियाभर में ईयू के जैसे कानून होने के बावज़ूद गूगल, फेसबुक जैसी कम्पनियाँ उन्हें मानने से मना क्यों करती हैं? यहाँ तक कि वे अपने रसूख का दबाव बनाकर ऐसे कानूनों को बदलवाने की कोशिश भी क्यों करती हैं? तो सीधा सा ज़वाब है, कारोबारी लाभ। दरअस्ल, दुनिया में अब फ़र्ज़ी सूचनाओं का बड़ा मायाजाल तैयार हो गया है। इससे जुड़े सभी पक्षों को हर तरफ़ से लाभ ही लाभ है।

उदाहरण के लिए कोई कारोबारी अगर अपने प्रतिद्वंद्वी कारोबारी के ख़िलाफ़ फ़र्ज़ी सूचनाएँ फैलवाता है, तो उसे लाभ होगा और प्रतिद्वंद्वी का नुक़सान। यह नियम राजनीतिक दलों पर भी लागू होता है, चाहे वह सरकारें चलाने वाले हों या विपक्ष के। दुनियाभर में इन दिनों यह हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। इसके लिए एक पूरा नया वर्ग तैयार हो चुका है, जिसे ‘इनफ्लुएंसर’ कहा जाता है। इस वर्ग के ‘पेशेवर’ लोग बाक़ायदा मोटी रकम लेकर इस तरह के कारनामे किया करते हैं।यह बात शोध और अन्वेषण के आधार पर साबित भी हो चुकी है। 

और दिलचस्प बात है कि सूचनाओं के, ख़ास तौर फ़र्ज़ी सूचनाओं के प्रसार के कारोबार में सबसे बड़ा मुनाफ़ा काटती हैं गूगल, मेटा और एक्स जैसी कम्पनियाँ। क्यों? क्योंकि दुनियाभर में सूचनाओं के प्रसार के जितने भी माध्यम हैं, लोकप्रिय मंच हैं, उनमें से लगभग सभी की मालिक यही कम्पनियाँ हैं। इसी मुनाफ़े के मद्देनज़र इन कम्पनियों ने तकनीकी रूप से ऐसे इंतिज़ामात कर रखे हैं कि फ़र्ज़ी सूचनाएँ सच्ची और अच्छी सूनाओं की तुलना में 20 से 30 गुणा तक तेजी से फैलें। यह बात भी शोध अध्ययन के आधार पर कई बार साबित हुई है।   

इसीलिए ज़रा सोचिए कि जब कोई छोटा व्यापारी भी अपने ‘बिकाऊ बाज़ारू माल’ को ‘ख़राब’ नहीं कहता तो गूगल-फेसबुक क्यों कहेंगे? वह भी तब जबकि उनका कारोबार लाखों करोड़ रुपए का है! इसीलिए, यह मानकर चलिए कोई कानून हमें-आपको फ़र्ज़ी सूचनाओं, या वाहियात सामग्री की मार से नहीं बचा सकता। इससे बचने के लिए जो भी करना है, हमें ख़ुद करना होगा। वरना न परिवार बचेंगे और न समाज।

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Neelesh Dwivedi

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