बच्चों को ‘नम्बर-दौड़’ में न धकेलें, क्योंकि सिर्फ़ अंकसूची से कोई ‘कलेक्टर’ नहीं बनता!

टीम डायरी

एक ज़माने में बोलचाल के दौरान कुछ जुमले चलते थे- ‘तुम कोई कलेक्टर हो क्या कहीं के’ या ‘ज़्यादा कलेक्टरी झाड़ने की कोशिश न करो’। ये जुमले इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे समाज ‘कलेक्टर’ होना क्या मायने रखता है। ‘कलेक्टर’ मतलब पढ़ाई-लिखाई के बाद नौकरी-पेशे के क्षेत्र में सफलता का चरम शिखर।

आज भी यही सोच क़ायम है क्योंकि यह पद कोई मामूली है भी तो नहीं। कठिनतम समझी जाने वाली संघ लोकसेवा (यूपीएससी) की परीक्षा पास करने के बाद मिलती है- ‘आईएएस’ (भारतीय प्रशासनिक सेवा)। यह पहले कभी ‘भारतीय नागरिक सेवा’ (इंडियन सिविल सर्विस) कहलाती थी। इसका रुतबा शुरू से अब तक ऐसा रहा है कि भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसे स्टील फ्रेम ऑफ इण्डिया’ मतलब ‘भारत का लौह ढाँचा’ क़रार दिया था। इसीलिए आज भी लोग ख़ुद या फिर अपने बच्चों को ‘कलेक्टर’ बनाने का सपना देखते हैं। 

ऐसे सपने के पीछे भागते-भागते माता-पिता न जाने कब बच्चों को पढ़ाई के दौरान अधिक से अधिक नम्बर लाने की दौड़ में धकेल देते हैं। इससे बच्चों को पर अनावश्यक दबाव बनता है। तनाव, अवसाद तक उनके भीतर ठहर जाता है। हर साल ऐसी तमाम कहानियाँ आती हैं। फिर आने वाली हैं, क्योंकि 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के नतीज़े बस, आने ही वाले हैं। कुछ राज्यों से नतीज़े आने शुरू भी हो गए हैं। इसीलिए आज ‘भारतीय नागरिक सेवा दिवस’ पर लोगों के दिमाग़ों में चढ़ा नम्बरों की दौड़ का मकड़जाला साफ़ करने का एक प्रयास तो बनता है। 

सो, कुछ कहानियाँ बताते हैं, सच्ची कहानियाँ। ये कहानियाँ साबित करेंगी और समझाएँगी कि ‘ऊँचे अंकों से चमकती अंकसूची’ से कोई कलेक्टर नहीं बनता। पहला उदाहरण- दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के हंसराज महाविद्यालय की एक छात्रा हैं बिस्मा फरीद। अंग्रेजी (ऑनर्स) से स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। अभी पहला साल है। पहले विद्यालय और फिर महाविद्यालय में अब तक उन्होंने हमेशा सर्वाधिक अंक हासिल किए। जैसा कि उन्होंने ख़ुद दावा किया कि वे अव्वल आती रहीं। पढ़ाई के मामले में 50 से ज़्यादा प्रमाण पत्र हासिल किए, 10 से अधिक पदक और इतनी ही ट्रॉफी जीतीं। इसके बावज़ूद इस वक़्त कोई भी कम्पनी उन्हें इन्टर्नशिप का मौका नहीं दे रही है।

दूसरा उदाहरण- गुजरात के अफ़सर हैं। तुषार सुमेरा नाम है उनका। कोई दो साल पहले उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी 10वीं की अंकसूची साझा की थी। उससे पता चला था कि उनके 100 में से अंग्रेजी में 35, गणित में 36 और विज्ञान में 38 नम्बर आए थे। उनके बारे में कई लोगों ने यह तक कह दिया था, “यह लड़का कुछ नहीं कर पाएगा।” लेकिन वही लड़का यूपीएससी की परीक्षा पास कर के भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी बना। और जब तुषार ने अपनी 10वीं की अंकसूची सार्वजनिक की, तब वह भरूच जिले के ‘कलेक्टर’ पदस्थ थे। 

तीसरे उदाहरण से पहले एक और जुमला, जो अक्सर ही बच्चों को सुनाया जाता था, “पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे रहोगे ख़राब”। आज भी घरों और शिक्षण संस्थानों, आदि में बच्चों को अक्सर खेलने-कूदने या ऐसे ही किसी कौशल में दक्षता हासिल करने से हतोत्साहित किया जाता है। लेकिन राजस्थान के एक क्रिकेट खिलाड़ी हैं, जो खेलते-खेलते कलेक्टर बन गए। वह भी 56 साल की उम्र में। इस वक़्त ब्यावर जिले में कलेक्टर हैं। साल 2022 में राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अफसर (आरएएस) डॉक्टर महेन्द्र खड़गावत को यूपीएससी की चयन समिति ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में शामिल किया है। वह क्रिकेट की किट में किताबें और जेब में नोट्स रखकर पढ़ाई करते हुए साल 1992 में आरएएस में चयनित हुए थे। उससे पूर्व राजस्थान के शीर्ष किक्रेटर थे। 

इन उदाहरणों के बावज़ूद यदि कोई सन्देह बचा हो तो एक और प्रमाण है। उत्तराखण्ड के मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी है। वहाँ भारतीय लोकसेवा के अफसरों को दो साल का प्रशिक्षण दिया जाता है। मतलब जिन्हें कलेक्टर या एसपी (पुलिस अधीक्षक) वगैरा बनना है, उन्हें उनके ज़िम्मेदारी के लिए तैयार किया जाता है। वहाँ प्रशिक्षण ले चुके वरिष्ठ अफसर बताते हैं कि अकादमी में प्रशिक्षुओं को 16 अलग-अलग तरीक़े के कला-कौशल में दक्ष किया जाता है। इनमें घुड़सवारी, आदि भी शामिल होती है। और वैसे भी, यूपीएससी की मुख्य परीक्षा तथा साक्षात्कार के बारे में भी, बताते हैं कि उसमें पढ़ाई से ज़्यादा परीक्षार्थी का कौशल (स्किल) मायने रखता है। 

मतलब, कलेक्टर बनने और कलेक्टरी करने का हुनर अंकों या अंकसूची से नहीं आता। बल्कि हुनर में हुनरमन्दी से आता है। इसलिए अंकों और अंकसूची पर अटके रहने के बजाय हुनर तराशें तो बेहतर।     

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Neelesh Dwivedi

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