प्रतीकात्मक तस्वीर
समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
अभी हम जिस सन्धिकाल से गुजर रहे हैं, वह कुछ इतना अलग है कि उसको समझने के लिए हमारे पास उचित शब्द, युक्तियाँ और वैचारिक संरचनाओं का नितान्त अभाव है। हमारे उपलब्ध विचार, बौद्धिक परिवेश इतने पुराने और अप्रासंगिक है कि उनका आज कोई उपयोग नहीं बचा है। हम विश्व-व्यवस्था के आमूलचूल बदलाव से गुजर रहे हैं। यह श्वेत-ईसाई प्रभुत्व वाली छद्म-अतिउदारपन्थी बहुसंस्कृतिवादी विश्व-व्यवस्था का अवसान काल है। इसके संकेत हैं अमेरिका-यूरोप आदि राष्ट्रों में उदय हाेते स्थानीय-राष्ट्रवाद के विचार।
ये पश्चिमी देश बहुसंस्कृतिवाद के माध्यम से अपने पूर्वअर्जित औपनिवेशिक लाभ का उपभोग कर रहे थे। अब कई कारणों से यह आपसी समझबूझ- एकजुटता बिखर रही है। वैसे तो इसका मूलभूत कारण इस व्यवस्था का अन्यायपूर्ण और असम्यक होना है। विकसित देशों के स्तर पर अपरिमित भोगवादपरस्त मौद्रिक नीति, फिजुलखर्ची और नई उभरती अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिद्वन्द्विता है। यह बहुत कुछ पुराने गाँवों के रईस साहुकारों के मोटे-थुलथुले मस्तमौला बच्चों और समृद्ध होते नए किसानों के मेहनती और महत्वकांक्षी लड़कों के बीच के संघर्ष की तरह है। अब इन देशों का मुकाबला चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत, इंडोनेशिया जैसी नई उदयमान अर्थव्यवस्थाओं से है। इससे पुरानी विश्व-अर्थव्यवस्था डाँवाडोल हो रही है। पुराने साहूकार घराने कमजोर हो रहे हैं।
विकसित देशों में नए उभरते राष्ट्रवाद से जो आपसी संघर्ष की भूमिका बन रही है। इसका कारण है विकसित राष्ट्रों में प्रचलित गहरी द्वैधता। उनके द्वारा अंगीकृत अब्राहिमी परम्परा के नीति मूल्य औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए तो सहयोगी हैं, लेकिन इसमें निहित भोगवाद और संकीर्णता इसे आपस में ही संघर्षशील, यहाँ तक की स्वजातिभक्षी बनाती है। अब्राहिमी नीति मूल्य आधारित राष्ट्रों की स्थिति को समझने के लिए इतिहास में प्रथम द्वितीय विश्वयुद्ध पूर्व के यूरोप के राष्ट्रों के आपसी मारकाट वाले संघर्ष या कबिलाई अरब देशों के उदाहरण ले सकते हैं।
इसी से निपटने के लिए अतिउदारपन्थी-बहुसंस्कृतिवाद को अंगीकार किया गया। इसके लिए रिनेसां के बाद यत्र-तत्र से उपलब्ध और हजम किए ज्ञान को आधार बनाया गया। और इस कृत्रिम तथाकथित वैश्विक मानवता को आधार बनाकर आपसी संघर्ष को सीमित कर उसे बाहरी देशों की ओर उन्मुख किया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कोई पाँच दशक तक मानव सभ्यता का शत्रु साम्यवादी रूस को कहा गया। उसके बाद वैश्विक-इस्लामवाद का क्रम आया और अब चीन का। इसलिए पश्चिमी मुख्यधारा जहाँ वैश्विक मानव सभ्यता और संस्कृति की बात करती है तो हमें इसका सही अर्थ यानि श्वेत-ईसाई जगत और उनसे जुड़े लोगों के हित ही पढ़ना चाहिए।
खैर, अब यह बदलने वाला है। बदलती परिस्थिति में अपने हित सुरक्षित करने के लिए औपनिवेशिक विकसित रईस देशों में आपस में प्रतिस्पर्धा हाे रही है। ये देश नए विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं के साथ नए सम्बन्ध बनाना चाहते हैं। अब इन देशों को डर है कि आपसी एकजुटता टूटने की स्थिति में राष्ट्रों के बीच जो लेन-देनवाद फैलेगा उसमें भोगवादी अब्राहिमी देश कैसे जिन्दा बचेंगे? पश्चिमी सोच जिस द्वन्द्वात्मक द्वैतवाद की आदी है, उससे वह बहुध्रुवीयता और वैविध्यता के माहौल में जीवित रहने का अभ्यास खो चुकी है। अत: यह लगभग स्पष्ट है कि यू्क्रेन-रूस युद्ध के पटाक्षेप को इतिहास एक ऐसे अप्रत्याशित मोड़ के रूप में दर्ज करेगा जिसका परिणाम यूरोप की पराजय के रूप में हुआ।
पश्चिम प्रणीत वैश्विक मानव सभ्यता के दर्शन को यह सबसे जबरदस्त धक्का है। यह स्थानीय परम्परा आधारित राष्ट्रवाद का फैलना कोई दुर्घटना नहीं है। यह वर्तमान विश्व-व्यवस्था और विचारधारा के पतन का सूचक है। इसके लक्षण अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प, जर्मनी में एलिस वीडेल, फ्रेडरिक मर्त्ज, फ्रांस में मरिन ले पेन, इटली में जियोर्जिया मेलोनी और हंगरी में विक्टर ओबर्न जैसे नेताओं का उदय है। यह दीगर बात है कि पुराने श्रेष्ठी वर्ग जिसमें अमेरिका का ‘डीप स्टेट’ और पश्चिम का मेनस्ट्रीम मीडिया, अकादमिया नए उदयमान ताकतों के लिए दक्षिणपन्थी, नाजीवादी, श्वेत नस्लवादी जैसे शब्दों का प्रयोग करता है। यह पश्चिमी चरित्र के दोहरेपन को तो उजागर करता है और वर्तमान सत्ता तंत्र द्वारा पराजय की स्वीकरोक्ति है।
मजे की बात है अतिउदावादी यूरोपीय देशों में विरोधी विचार रखने वालों की स्थिति देखें तो इस्लामी राष्ट्र ज्यादा लोकतांत्रिक प्रतीत होते हैं। यह सच भी है क्योंकि इस्लामिक देशों का शासन अपनी स्थानीय पहचान, मजहब और परम्पराओं के प्रति ग्लानिरहित और ईमानदार ताे है। यूरोपीय बहुसंस्कृतिवादियों के लिए औपनिवेशिक मूल्यों पर चलने वाला भारत एक सम्बल हो सकता था। किन्तु 2024 में नरेन्द्र दामोदरदास मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री चुन कर भारतीय मतदाताओं ने उनके खेल का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है। यूरोपीय उदारपंथियों की आम भारतीयों से चिढ़ की यही वजह है। क्योंकि भारत तो हिन्दू राष्ट्र बनकर भी न्यायपूर्ण गैर-हिन्दुओं के साथ मानवता का व्यवहार करेगा ही, लेकिन यूरोप में राष्ट्रवाद उनके कबिलाई हिंसक चरित्र को उजागर कर रहा है। अब यदि इन विभेदों के चलते राजनीतिक नक्शे, सामाजिक परिवेश बदले तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस पार्श्वभूमि में जो राजनीतिक घटनाक्रम हुए हैं उन पर नजर डालें –
अमेरिका में चुनावपूर्व जो ट्रम्प की स्थिति थी, यूरोप में वही स्थिति राष्ट्रवादी, दक्षिणपन्थी और नस्लीय वर्चस्ववादी कहे जाने वाले पक्ष की है, जिसे एक अतिउदारवादी-बहुसंस्कृतिवादी आदर्श के नाम पर हाशिए पर धकेला गया है। यदि लोकतांत्रिक स्तर पर इन मुद्दों पर बहस कर जनादेश लिया जाता, तो शायद उदारपन्थियों का पक्ष ज्यादा मजबूत और टिकाऊ होता। लेकिन ऐसा करने में यूरोप अपनी श्रेष्ठता, और वर्चस्व के दम्भ से वंचित रह जाता, जिसे वह अपनी समृद्धि और नेतृत्व का कारण गिनाते हैं। यह अलग बात है कि यूरोप-अमेरिका के प्रभुत्व का अस्ल कारण औपनिवेशिक लूट की पूँजी है। यूरोप से पहले कमोबेश यह सुख ऑटोमन साम्राज्य भी भोग चुका था।
डेमोक्रेट सरकार ने यूक्रेन युद्ध के बहाने यूरोप को रूस के सामने खड़ा कर दिया। वहीं रूस से जर्मनी को गैस आपूर्ति करने वाली नार्ड स्ट्रीम को उड़ाने, रूसी व्यापार का बहिष्कार, उसकी सम्पत्तियाँ जब्त करने जैसी घटनाओं के समर्थन से यूरोप को आर्थिक, सामरिक और रणनीतिक हानि हुईं। अब अमेरिका और रूस के बीच सहमति और यूक्रेन को बाँट लेने की तैयारियों के बाद यूरोप के पास युद्ध के दुष्परिणामों को समेटने के अलावा अधिक कुछ बचता नहीं दिखता। यूरोप के प्रमुख देश अमेरिका को एक विश्वसनीय साथी नहीं मान रहे। लेकिन सवाल यही है कि ऐसी यूरोपीय सरकारें खुद लोकतांत्रिक रूप से कितनी विश्वसनीय है, इसका निर्णय अगले चुनावों में जल्द ही हो जाएगा। यही कारण है कि एलन मस्क, जुकरबर्ग आदि के अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में वक्तव्यों को यूरोपीय अतिउदारपन्थी धड़ा चुनावों में धुर दक्षिणपन्थी, नस्लीय वर्चस्ववादी, नाजीवादियों के समर्थन के रूप में निरुपित कर रहे हैं।
यूक्रेन को रूस के खिलाफ युद्ध में जिस अमेरिकी विचारधारा ने धकेला था, उसे यूरोपीय यूनियन और नॅटो जैसे संगठन विश्व जिस विशिष्ट बिसात के रूप में देखते थे, उसके किरदार, परिस्थितियाँ और सामयिकता अब खप चुकी हैं। अमेरिका में इस विचारधारा को समर्थन देने वाली डीप-स्टेट ने ट्रम्प के खिलाफ और डेमोक्रेट उम्मीदवार के पक्ष में सभी घोड़े खोल दिए थे। लाजिम है, उनके हाथों एक बार लगभग जीता हुआ चुनाव खो चुके रिपब्लिकन ट्रम्प अब उस पूरे तंत्र को नेस्तनाबूत करने पर आमादा हैं। ट्रम्प और उनके पक्ष के लिए भी यह जीवन-मरण का प्रश्न ही है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प ने डीप-स्टेट के खिलाफ जो अभियान छेड़ा है, उससे इस नेटवर्क के किरदार, कलेवर और कामकाज के तरीके में भारी बदलाव होना तय है। जो नहीं बदलेगा वह होगा अमेरिकी प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए डीप-स्टेट की उपयोगिता। अमेरिका की ही बात करें तो वहाँ डीप स्टेट बदल रही है।
हालाँकि असल सवाल यह है कि नया उभरने वाला डीप-स्टेट कैसा होगा? यह बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। इसको जानने का प्रयास करेंगे अगले भाग में।
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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। विशेष रूप से धर्म-कर्म और वैश्विक मामलों पर वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। समीर ने सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा पर हाल ही में डायरी पर सात कड़ियों की अपनी पहली श्रृंखला भी लिखी है।)
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