ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
युद्ध या उससे भी कुछ बदतर – अब जो भी होगा, बहुत भयावना होगा। तनु बाकर को इस बात का पक्का भरोसा हो चुका था। इतना कि उस बारे में सोचकर भी वह घबराहट के मारे पसीना-पसीना हो जाता था। उसने अपने लड़ाकों के सामने रैड-हाउंड्स के खिलाफ ‘कत्लेआम के बदले कत्लेआम’ की अपील बुलंद कर दी थी। लेकिन यह अपील भय और हताशा के साए में की गई थी। यह एक तरह का नपुंसक आक्रोश था।
मैडबुल के आदमियों ने जिस बर्बरता के साथ गाँववालों पर हमला किया था, उस क्रूरता का हर मंजर उसके दिल में छप गया था। तभी से, जब उसने पहली बार उस हैवानियत का दृश्य अपनी आँखों से देखा था। वह निशब्द था और स्तब्ध भी। उस तबाही ने उसे हिलाकर रख दिया था। अब तक वह जिस जज्बे के साथ रैड-हाउंड्स से मुकाबला किया करता था, उन्हें परास्त कर देने का भरोसा रखता था, वह सब नदारद हो चुका था। अब उसकी जगह आशंकाओं ने ले ली थी। वैसे, तनु बाकर की छवि एक मजबूत, समझदार और संयत व्यक्ति की थी। लेकिन जान-माल और घर-बार गँवा देने के विचार से भी बुरी तरह दहशतज़दा तथा भ्रमित ग्रामीणों को देखकर उसका भी आत्मविश्वास हिल गया था। यहाँ तक कि अब उसके सर्वश्रेष्ठ लड़ाकों को भी यह उम्मीद नहीं थी कि वे रैड-हाउंड्स के बर्बर, जंगली जवानों के सामने टिक पाएँगे। रैड-हाउंड्स के जवान संख्या में भी तो अधिक थे। इसीलिए तनु बाकर अब अपराधबोध से भी ग्रसित था। ग्रामीणों के चेहरे जैसे उस पर आरोप मढ़ रहे थे और वह उनमें से किसी के साथ भी नजर मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। वह ग्रामीणों के चेहरों पर ये सवाल साफ तौर पर पढ़ रहा था कि जिस वक्त रैड-हाउंड्स ने गाँव पर हमला किया, तब गाँववालों की सुरक्षा के लिए वह और उसके लड़ाके मौके पर मौजूद क्यों नहीं थे?
उसकी नजरों के सामने हर तरफ विभीषिका ही विभीषिका मुँह बाए खड़ी थी। गाँव की महिलाओं के चेहरों से मुस्कुराहट गायब हो गई थी। वे मरे हुए जानवरों की सड़ चुकी लाशों को साफ करते-करते बुरी तरह निढाल हो गईं थीं। लेकिन जानवरों की लाशें अब भी नालों में अटी पड़ी थीँ। इससे नाले जाम हो गए थे। उन्हें फावड़ों से उन शवों को निकालना पड़ रहा था। धमाकों से उड़ा दिए गए घरों की दीवारों से झाँकते छेद आग और धुआँ अब भी उगल रहे थे। घरों से उड़कर बिखरे कंक्रीट ने बिजली के खंभे ध्वस्त कर दिए थे। बैलगाड़ियाँ टूटकर छिन्न-भिन्न हो गईं थीं। ऊपर से बारिश और बाढ़ की मार अलग, जिससे सड़कें पानी में डूब गईं थीं। हर गुजरते दिन के साथ ऐसा लगने लगा था, जैसे भगवान ने भी उन लोगों की मदद से हाथ खींच लिए हों। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया हो। लगातार बारिश के कारण गाँव की गलियों में पानी, खून और माँस का कीचड़ हो गया था। इससे चलना-फिरना तक दूभर था। पिछले कुछ हफ्तों में हुई बारिश मिट्टी की पूरी उपजाऊ शक्ति बहा ले गई थी। लगता था, जैसे इंद्रदेव भी उन लोगों को गाँव से बाहर भगा देने पर उतारू हों। पानी काँच की धार की तरह फसलों पर गिर रहा था। इससे हरी-भरी फसलें भी बीमार, बेजान होकर पीली पड़ गईं थीं। तेज हवा के कारण फसली पौधे असहाय से इधर-उधर झूल गए थे। फसलें जमीन पर गीली मिट्टी के लौंदों से जा लगी थीं। ये फसलें ही कभी होरी के इलाके की शान होती थीं। लेकिन आज वे मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो गईं थीं। जहाँ कभी सुनहरे खेत होते थे, वहाँ अब सड़ी-गली सब्जियों का दलदल बन गया था।
गाँववालों के जिस्मों पर भूख और दुश्वारियों के निशान नजर आने लगे थे। पुरुष गुफाओं में शरण लेने को मजबूर थे। उन्होंने तनावग्रस्त चुप्पी साध रखी थी। कभी आपस में बात करते भी थे, तो घुटी हुई आवाजों में। उनके पास खाने-पीने की चीजें खत्म हो गईं थीं। इसलिए वे अब चूहे और अन्य कीड़े-मकोड़े मारकर खाने लगे थे। उनकी थालियों में छोटी-छोटी हडिडयों के ढेर होते थे, जिन पर से माँस का छोटे से छोटा सा कतरा भी वे चूस लिया करते थे। उन्हें अब फर्क नहीं पड़ता था कि वे किसका माँस खा रहे हैं, किसकी हडि्डयाँ चूस रहे हैं। खेतों के चूहे से लेकर चमगादड़ तक, सब उन्हें पेट भरने के लिए मंजूर थे।
रात के समय उन्हें फुसफुसाते हुए सुना जा सकता था, “माँस तो माँस है। वह किसका है, इससे हमें क्या लेना-देना। हम वही खाते हैं जो हमें खाना चाहिए।” आने वाले कल का ख्याल अब किसी के जेहन में नहीं था। नींद उनकी आँखों में मुश्किल से ही आती थी। उन गाँववालों को इस बदतरीन हाल में अब और देखना तनु बाकर के लिए बर्दाश्त से बाहर था। उसका सक्रिय दिमाग, जो पहले लगातार घटनाओं की जाँच-पड़ताल और रणनीतियाँ बनाने में लगा रहता था, अब वह दुख से संतप्त होकर सुन्न हो चुका था।
आज उसे बड़ी शिद्दत से अंबा की कमी महसूस हो रही था। उसकी गैरमौजूदगी का ख्याल उसके दिल में घूँसे की तरह चोट कर रहा था। अंबा को उसने पहली बार 15 साल पहले देखा था, जब वह अपनी झील सी गहरी आँखों से उसे घूर रही थी। कुछ इस तरह कि जैसे वह उसे भीतर तक खँगाल लेना चाहती हो। उसे देखते ही तनु बाकर को अंदाजा हो गया था कि वह कोई साधारण लड़की नहीं है। लेकिन आज वही असाधारण लड़की गायब थी। उसका कोई नाम-ओ-निशान तक नजर नहीं आता था।
वह खुद को असहाय महसूस करने लगा था। किसी इंसान के लिए उसकी जमीन छिन जाने का दर्द बहुत बड़ा होता है। लेकिन उससे भी बड़ी तकलीफ होती है, उम्मीद खत्म हो जाना। तनु बाकर इस समय उसी तकलीफ से गुजर रहा था। उसे लगता था, जैसे किसी ने उसके जिस्म से उसकी चमड़ी ही उतार ली हो। वह हार मानने लगा था और उसकी हताशा के निशान उसके चेहरे पर दिखने लगे थे।
बीती रात तो उसे एक भयानक पूर्वाभास हुआ था कि वे सब एक साथ भूख और ठंड की मार से तड़प-तड़प कर मर जाने वाले हैं। ठंड वाकई जानलेवा थी। उससे बचने के लिए ग्रामीणों को जो हाथ लग रहा था, वे उसे ही जला रहे थे। ताकि आग कुछ समय के लिए ही सही, उन्हें थोड़ी गरमी दे दे। उन्होंने लकड़ी के लिए जर्जर हो चुके मकानों को तोड़ दिया था। भूखी और डरी हुई भीड़ उन मकानों पर टूट पड़ी थी। पुर्जा-पुर्जा निकाल लिया था उन्होंने। दीवारें खोद डाली थीं। इस दौरान कुछ लोग दबकर घायल हुए। कुछ मारे तक गए। लेकिन किसी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें उन घरों से जो मिला, बटोर ले आए। फटे-पुराने कपड़े, कागज, लकड़ी, और न जाने क्या-क्या। सब लेकर वे सड़कों पर इकट्ठा हो गए थे।
“अगर हम भूख से नहीं मरे, तो ठंड से मारे जाएँगे। और ठंड से बचे तो भूख हमारी जान ले लेगी। खाने-पीने का पर्याप्त राशन तक नहीं बचा है हमारे पास।” रोध ने शिकायती लहजे में कहा।
“हाँ, और तारा को देखो, कैसी भयानक दुबली हो चुकी है। चमड़ी उसकी हड्डियों से चिपक गई है। मैं तो उससे नजर भी नहीं मिला सकता—।” नकुल ने दूर से देखते हुए कहा। वहाँ मौजूद हर शख्स इस भयावहता से असहज था। लेकिन वे सब जानते थे कि इस वक्त की सच्चाई यही है।
#MayaviAmbaAurShaitan
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
59 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह समझ गई थी कि हमें नकार देने की कोशिश बेकार है!
58 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अपने भीतर की डायन को हाथ से फिसलने मत देना!
57 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे अब जिंदा बच निकलने की संभावना दिखने लगी थी!
56 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : समय खुशी मनाने का नहीं, सच का सामना करने का था
55 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : पलक झपकते ही कई संगीनें पटाला की छाती के पार हो गईं
54 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : जिनसे तू बचकर भागी है, वे यहाँ भी पहुँच गए है
53 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : तुम कोई भगवान नहीं हो, जो…
52 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मात्रा, ज़हर को औषधि, औषधि को ज़हर बना देती है
51 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : न जाने यह उपहार उससे क्या कीमत वसूलने वाला है!
50 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : उसे लगा, जैसे किसी ने उससे सब छीन लिया हो
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