‘प्लवक’ हमें साँसें देते हैं, उनकी साँसों को ख़तरे में डालकर हमने अपने गले में फ़न्दा डाला!

ज़ीनत ज़ैदी, दिल्ली

कक्षा 12वीं की अंग्रेजी की किताब का एक चैप्टर है, ‘द एंड ऑफ द अर्थ’। यह हमें बताता है कि किस प्रकार मनुष्य की गतिविधियाँ प्रकृति को नष्ट कर रही हैं। प्रकृति के उन हिस्सों को भी नुकसान पहुँचा रही हैं, जिनके बारे में सामान्य तौर इंसानों को पूरी जानकारी तक नहीं है। 

उदाहरण के लिए ‘प्लैंकटन’, जो ऐसे जीव हैं, जिनके बारे में सामान्य जानकारी भी बहुत कम लोगों को होगी। हिन्दी में ‘प्लैंकटन’ को ‘प्लवक’ कहते हैं। यानी पानी की ऊपरी सतह में तैरने वाले। ये ‘प्लवक’ प्राणी और वनस्पति दोनों होते हैं। प्राणियों को ‘प्राणिप्लवक’ (ज़ू प्लैंकटन) और वनस्पतियों को ‘पादपप्लवक’ (‘फाइटो प्लैंकटन) कहते हैं। समुद्रों में तो इनका भरा-पूरा संसार पाया जाता है। 

मछलियों जैसे समुद्री जीवों के छोटे-छोटे बच्चे भी ‘प्लवक’ ही होते हैं, जब तक उनमें तैरने की क्षमता विकसित नहीं होती। प्लवक सिर्फ़ पानी में गोता लगा सकते हैं और फिर सतह पर आ सकते हैं। बाकी सिर्फ़ जलधारा के साथ बह ही सकते हैं और कुछ नहीं कर पाते। इसके बावज़ूद इनका वज़ूद बेहद एहमियत रखता है क्योंकि ये जलीय खाद्य श्रृंखला का सबसे अहम हिस्सा होते हैं। 

यही नहीं, वायुमंडल में लगभग 70% ऑक्सीजन महासागरों में प्रकाश संश्लेषण करने वाले ‘फाइटो प्लैंकटन’ यानी ‘पादप प्लवक’ से उत्पन्न होती है। सीधे शब्दों में कहें तो हमारी साँसों का 70 फ़ीसद हिस्सा इन्हीं प्लवकों के दम पर उपलब्ध है। लेकिन इन प्लवकों के साथ हमने क्या किया? हमने इन्हीं की साँसों के लिए ख़तरा पैदा कर दिया, ऐसा शोध बताते हैं। 

हाल में हुए अध्ययन बताते हैं कि क़रीब 6.6 करोड़ साल पहले जब पृथ्वी का तापमान बहुत ज़्यादा बढ़ा था, तब बड़ी संख्या में समुद्री प्लवक जीवन बचाने के लिए अंटार्कटिका चले गए थे, ठंडी जगह पर। इस तरह वे तब उस ‘सामूहिक विनाश’ से जैसे-तैसे बच गए, जिसमें जीव, जन्तु, वनस्पति की कई प्रजालियाँ लुप्त हुई थीं। लेकिन अब उनके लिए वहाँ भी जान बचाना मुश्क़िल हो रहा है। 

अध्ययनों से पता चलता है कि अब अंटार्कटिका में भी गर्मी लगातार बढ़ रही है। गर्म हवाओं के झोंके (हीट वेव) वहाँ भी चलने लगे हैं। इससे समुद्री प्लवकों का जीवन ख़तरे में है। और यह सब क्यों हाे रहा है? हम इंसानों द्वारा लगातार किए जा रहे प्रदूषण और वातावरण में रोज़ छोड़ी जा रही ज़हरीली गैसों से धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी (ग्लोबल वॉर्मिंग) के कारण। ऐसे में, इंसानी ज़िन्दगी भी ख़तरे में है। 

इसे सीधे लफ़्ज़ों में कहूँ तो जो प्लवक हमें साँसें देते हैं, उनकी साँसों पर ख़तरा पैदा कर के हमने अपने ही गले में फ़न्दा डाल लिया है। अब बस, इस फ़न्दे के कसने की देरी है। और फ़िर नतीज़ा वही, जो करोड़ों साल पहले सामने आया था, ‘सामूहिक विनाश।’ मुमकिन है, इतिहास अपने आप को दोहराए। हालाँकि, अगर हमें इससे बचना है या सचेत होना होगा। ख़ुद में बदलाव लाना होगा।

धरती को आग के गोले में तब्दील होने से बचाने के लिए जिससे जो बने, उसे वह करना होगा। याद रखिए, जब हम खुद को सुधारेंगे तो बहुत सी चीज़ें अपने आप सुधर जाएँगीं। 

जय हिन्द
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(ज़ीनत #अपनीडिजिटलडायरी के सजग पाठक और नियमित लेखकों में से हैं। दिल्ली के आरपीवीवी, सूरजमलविहार स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ती हैं। लेकिन इतनी कम उम्र में भी अपने लेखों के जरिए गम्भीर मसले उठाती हैं।अच्छी कविताएँ भी लिखती है। वे अपनी रचनाएँ सीधे #अपनीडिजिटलडायरी के ‘अपनी डायरी लिखिए’ सेक्शन या वॉट्स एप के जरिए भेजती हैं।)
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