विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 6/11/2021

जिनसे उम्र भर लड़ते-भिड़ते रहते हैं, वे एक दिन हम सबसे दूर हो जाते हैं। सदा के लिए संसार त्याग देते हैं। हम दुख मनाते हैं। मातम में रहते हैं। फिर धीरे-धीरे पटरी पर लौटते हैं और दोबारा सुख खोजते हैं। खुशियाँ तलाशते हैं पर यह भूल जाते हैं कि खुशियाँ रिश्तों में नहीं हैं। सम्बन्धों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर हैं। 

हम सब यह उपक्रम करते हैं। बार-बार हर कदम के संघर्ष पर लगता है कि हम अनुपयुक्त हैं। बेमानी हैं। कई बार छन्न से बिखर जाते हैं, टूटे काँच की तरह, एकदम से पर यह याद नहीं रहता कि हम जो बाहर खोज रहे हैं, वह वस्तुतः है ही नहीं कुछ। भीतर की लड़ाईयों से मुँह मोड़कर हम एक तलाश में अपने से ही दूर निकल आते हैं। लौटना होगा, अपने ही भीतर या उस तलाश में जाना होगा, जहाँ हम अपने आपसे रू-ब-रू हो सकें। 

हवा को उल्टा बहते देखा है कभी? नदियाँ पलटकर बहने लगें या समुद्र की लहरें भीतर ही भीतर कसमसा जाएँ और पहाड़ धँसने लगें ज़मीन में तो क्या होगा? प्रकृति का यह रूप हम देख नही पाएँगे। इसकी कल्पना करके हम यह समझ सकते हैं अलबत्ता कि ऐसा होना सही नहीं है। शायद हम स्वीकार भी न कर सकेंगे पर हम अक्सर अपने व्यक्तित्व के साथ प्रायः यही करते हैं और यह करते हुए बिल्कुल असहज नहीं होते। क्योंकि इसका मूल कारण यही है कि हम अलभ्य पाना चाहते हैं। बाहर की खोज हमें यायावर बनाती है। विचित्र हैं हम। जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव। 

इस सबके लिए जीवनानुभवों से पका दृष्टिकोण चाहिए। एक ऐसा नज़रिया विकसित करने की आवश्यकता है जो हमें सुनना और देखना सही बिन्दु से हो, यह सिखा सके। सुनिश्चित कर सके। पर हम देखना और सुनना क्या है, इसे इतना सरल और नैसर्गिक मान लेते हैं कि इसे सीखने की ज़रूरत क्या है, ऐसी धारणा बना लेते हैं। जबकि देखना और सुनना एक अभ्यास से आता है। दुनियाभर में धर्म, आध्यात्म से विज्ञान तक इसी सबको लेकर सदियों से काम कर रहा है। यदि यहाँ पारंगत होने में किंचित भी सफल हो गए तो बोलने के बारे में एक बार सोचा जा सकता है। हालाँकि एक जीवन में इन तीनों को साध पाना असम्भव है। जिसने एक को भी साध लिया, वह बाकी दो में कच्चा रह ही जाता है। 

प्रेम से इन तीनों को थोड़ा-थोड़ा करके हासिल किया जा सकता है। क्योंकि हम इस दौर में चारों ओर दृश्यों, कोलाहल और आवाज़ों से घिरे हैं। इस सबमें प्रेम कहीं नहीं है। इसलिए हम अशान्त हैं। निस्पृह होने की चेष्टा करते हैं पर हम असफल होते हैं क्योंकि हमारे भीतर भी प्रेम समाप्त हो गया है। हम दुर्दान्त हो गए हैं। संसार के जंगल में अपनी पगडंडियों को बनाकर मिटाते हुए चल रहे हैं। क्रोध, ईर्ष्या, वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा और अस्तित्व की लड़ाई में निम्नतर हो गए हैं। इसीलिए अगर अपने पैदा किए इन दुखों से उम्मीद करें कि हम कुछ पा जाएँगे तो असम्भव है। 

क्षमा के बारे में सुन्दर व्याख्याएँ हमारे पास हैं। लेकिन हम क्षमा करना भूल गए हैं। यह विदित है ही कि जब क्षमा का भाव उपजेगा तो अहंकार, दर्प, क्रोध, आसक्ति और अवसाद विदा होंगे। एक जगह ऐसी बनेगी जो व्योम से बड़ी होगी अपने भीतर। उस खाली जगह पर प्रेम की बाड़ी उपजेगी और तभी हमें नए रास्ते भी नजर आएँगे। हम रिश्तों-नातों और देखने-सुनने से बाहर निकलकर अपने भीतर की प्रकृति से एकाकार हो पाएँगे। तमस मिटेगा, कटुता कम होगी और हम एक-दूसरे को समझ पाएँगे। 

अपने कमरे में गाढ़ी नीली रंगी दीवारों में जब सुनने की कोशिश करता हूँ तो अपने भीतर मुझे पक्षियों की आवाज़ सुनाई देती है। मानवीय स्वर नहीं सुनाई देते। जब देखता हूँ तो आसमान में रंग बदलते बादल और दूर उगते-डूबते सूरज की लालिमा दिखाई देती है। स्तब्ध कर देने वाली रातें, उजली सी भोर, सन्नाटों से भरी ऊँघती दोपहरियाँ और उचाट शाम ही नजर आती है। मन के भीतर पसरे हुए जंगल, पहाड़ों की उन्नत चोटियाँ, समुद्र के गर्जन, नदियों की आवाज़ाही ही याद आते हैं। चेहरों की भीड़ में अपने को खोजता हूँ तो सिवाय दुर्गम रास्तों और जगहों के कुछ याद नहीं आता। सब चेहरे अवसादग्रस्त हैं। करुणा की आस में घूमते इन चेहरों पर भयावह छाया है, जो अशान्त और उद्विग्नता दर्शाती है। मैं दृश्यों को पहचानने की कोशिश करता हूँ पर भटक जाता हूँ। भ्रमित हो जाता हूँ और अन्त में परेशान होकर सब छोड़ देता हूँ। 

एक अनजान सफर पुकारता है। उसके आकर्षण में खिंचा चला जा रहा हूँ। सब कुछ मद्धम हो रहा है। आहिस्ते से और मैं निर्विकार भाव से उस दृश्य में विलोपित हो रहा हूँ। डूबना अक्सर पा लेना भी होता है।

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 34वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं :  
33वीं कड़ी : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32वीं कड़ी : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31वीं कड़ी : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30वीं कड़ी : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29वीं कड़ी : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28वीं कड़ी : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27वीं कड़ी :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26वीं कड़ी : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25वीं कड़ी : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला! 

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