निकेश जैन, इन्दौर, मध्य प्रदेश
जब मैं 30 साल पहले इन्दौर में क्रिकेट खेलता था, तो अपने क्लब के एक खिलाड़ी को रोज ही देखा करता था। उन्होंने लगातार आठ साल तक रणजी ट्रॉफी में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्त्व किया। चार साल तक दिलीप ट्रॉफी में सेंट्रल ज़ोन की तरफ़ से खेला। उस वक़्त वह भारत के बेहतरीन बाएँ हाथ के फिरकी गेंदबाज़ों में शुमार थे।
लेकिन उनका रहन-सहन देखकर मुझे बड़ी चिन्ता होती थी। वह एक स्थानीय बैंक में काम करते थे और घर से नौकरी तथा खेल के मैदान तक लूना से आया-जाया करते थे। उन्हें देखकर उस वक़्त मुझे बहुत दुविधा होती थी कि इतने सालों तक रणजी और दिलीप ट्रॉफी जैसे बड़े टूर्नामेंट खेलने के बाद भी उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे अच्छी जीवनशैली अपना सकें। आख़िर उसी दुविधा ने आगे चलकर मुझे क्रिकेट छोड़ने पर भी विवश किया।
उस वक़्त तक रणजी ट्रॉफी में मैं भी मध्य प्रदेश का प्रतिनिधित्त्व कर चुका था। आगे खेलते रहने की इच्छा भी थी। मगर 6,500 रुपए की इंजीनियरिंग की नौकरी के लिए मुझे क्रिकेट छोड़ना पड़ा। कारण कि उन दिनों क्रिकेट खिलाड़ियों को भी इतना पैसा नहीं मिलता था कि वे अच्छा और सुरक्षित जीवन जी सकें। हालाँकि आज कम से कम क्रिकेट के मामले में तो कह ही सकते हैं कि खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति पहले से बहुत अच्छी हो गई है।
इसके लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और देश में क्रिकेट की बढ़ी हुई लोकप्रियता का शुक्र मनाना चाहिए। लेकिन क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों का क्या? हॉकी, बैडमिन्टन, फुटबॉल या दूसरे किसी खेल में हालात बदले हैं क्या? नहीं बदले। वह भी हर किसी की जानकारी में यह तथ्य होने के बावज़ूद कि खिलाड़ी अपने खेल में आगे जाने के लिए पूरा जीवन होम कर देते हैं। उनकी पढ़ाई छूट जाती है। सामाजिक जीवन फिसल जाता है।
और इतने संघर्ष, ऐसे त्याग के बावजूद हर खिलाड़ी को सफलता नहीं मिलती। कई सालों की मेहनत के बाद कुछ ही सफल होते हैं। लेकिन अपने खेल में ऊँचाई पर पहुँचने के बाद भी आर्थिक सुरक्षा के नाम पर उनके हाथ में क्या होता है? नाममात्र के पैसे और कुछ सम्मान। बस, इतना ही। क्या इतने भर से जीवन अच्छे से चल सकता है? क़तई नहीं। इसीलिए माता-पिता भी बच्चों को खेलों में आगे जाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते।
आज भी बहुसंख्य अभिभावक खेलाें को बच्चों के भविष्य के लिहाज़ से सुरक्षित करियर नहीं मानते। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी इसी कारण मुझे हमेशा क्रिकेट खेलने से रोकते थे। तो फिर इतने सालों में क्या बदला? ज़्यादा कुछ नहीं। अलबत्ता, मेरी इच्छा, आकांक्षा अब भी है कि हमारा देश जब हर आर्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन रहा है, तो सभी तरह के खेलों में भी आगे बढ़े। देश के विभिन्न संगठन खेलों-खिलाड़ियों की मदद करें।
सभी खेलों के पुरुष और महिला खिलाड़ियों को खेल-कोटे से निजी क्षेत्रों में भी नौकरी मिले। अच्छा पैसा मिले, ताकि वे आर्थिक ज़रूरतों की ओर से पूरी तरह निश्चिन्त होकर अपने खेल पर ध्यान लगा सकें और देश का नाम रोशन करें। यही नहीं, अधिक से अधिक लोग खेल-प्रतिस्पर्धाओं को देखने भी जाएँ। भले ही वे छोटे बच्चों की ही खेल प्रतिस्पर्धाएँ क्यों न होां। इससे खिलाड़ियों को बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
खेलों और खिलाड़ियों को इस तरह का सहयोग-समर्थन अब देश में बहुत ज़रूरी है। तभी हमारे यहाँ एक खेल-संस्कृति विकसित हो सकेगी। खेल हमारे जीवन का हिस्सा बनेंगे, तो पदक भी अपने आप अधिक संख्या में भारत की झोली में आएँगे। तभी हम खेलों में भी महाशक्ति के रूप में दुनिया में पहचान बना सकेंगे। अन्यथा जब तक ऐसा नहीं होता, देश को ओलिम्पिक में पदक न मिलने की हमें शिकायत क़तई नहीं करनी चाहिए।
मानते हैं न?
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निकेश का मूल लेख
When I was playing cricket in Indore around 30 years ago, I used to watch this player from my club regularly. He had played Ranji Trophy for eight years in a row. Had played for central zone (Duleep Trophy) for 4 years. One of the best left arm bowlers in India.
But his lifestyle used to worry me. He had a job in a local bank and he used to ride a humble Luna.
It put a doubt in my mind – even after playing Ranji Trophy and Duleep Trophy for so many years you may not have a financially secured life 🤔
And this played a huge role in my decision of quitting cricket even after playing Ranji Trophy in favor of my Rs. 6500 job post engineering.
Those years even cricketers at that level didn’t have a secured life.
Today perhaps in cricket things have changed thanks to BCCI and popularity of cricket.
BUT Not much has changed for other sports including hockey, badminton and others sports.
A sports person puts tremendous effort to move up the ladder. They end up giving up their studies and social life. Even after that effort not everyone reaches to pinnacle. The few who reach to pinnacle may not earn lots of money.
It’s obvious that parents don’t see sports as a safe career for their kids! My father never wanted me to play cricket for exactly same reasons!
My hope is – as our economy is growing the support (financial) for all kind of sports will also grow. More organizations will offer jobs/financial support to sports men/women.
More and more people will go and watch young kids playing in various local competitions and encourage them.
Let sports become part of our culture and medals will follow.
Till then at least don’t complain about lack of medals!
Agree?
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(निकेश जैन, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी- एड्यूरिगो टेक्नोलॉजी के सह-संस्थापक हैं। उनकी अनुमति से उनका यह लेख अपेक्षित संशोधनों और भाषायी बदलावों के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। मूल रूप से अंग्रेजी में उन्होंने इसे लिंक्डइन पर लिखा है।)
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