विकास, दिल्ली से
मध्यप्रदेश के उज्जैन में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में एक महिला पत्रकार की साड़ी खींच ली जाती है। नोचा जाता है। ‘मुख्यमंत्री साहब’ सॉरी कहकर आगे बढ़ जाते हैं। उनकी पत्नी “भीड़ में ये सब हो जाता है” कहकर निकल लेती हैं।
छत्तीसगढ़ में एक लड़की पर गंडासे से वार कर उसे डेढ़ घंटे तक सड़कों पर खुलेआम घुमाया जाता है।
हरियाणा में दो लड़कों को ज़िन्दा जला दिया जाता है। हरियाणा पुलिस खून में लथपथ उन दोनों लड़कों को थाने लाने पर भी अस्पताल नहीं पहुँचाती। तफ़्तीश नहीं करती। उन्हें पीटने वालों को गिरफ्तार नहीं करती। क्यों? क्योंकि खून में लथपथ वो लड़के कथित तौर पर गोवंश के हत्यारे हैं।
एक समाज के तौर पर क्या हम मर चुके हैं? हम मानसिक रूप से बीमार समाज हो गए हैं? क्या यही अमृतकाल है? क्या यही है आज़ादी का अमृत महोत्सव? क्या ये सब ख़बरें हमें विचलित नहीं करती हैं?
नहीं कर रही हैं, तो समझिए कि हम भी मर चुके हैं। हम सब माँस के पुतले भर हैं।
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(विकास, डायरी के साथ शुरुआती दौर से जुड़े हुए हैं। एक निजी कम्पनी में काम करते हैं। लगातार लिखना, पढ़ना ही उनका काम है।)
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