क्या! पॉलीथिन नहीं लेनी, इन्दौर से आए हाे क्या? देखें, यूँ बनती है शहर की पहचान आपसे!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश

अभी कुछ दिनों पहले की बात है। मैं घर के पास एक किराना दुकान पर गया था। दो-तीन चीजें लेनी थीं। तो वहाँ सामान लेने के बाद जब दुकानदार ने उन चीजों को पॉलीथिन में रखने की कोशिश की, तो सहज भाव से मैंने मना कर दिया। मैंने उससे कहा, “भाई रहने दो, हाथ में ही ले जाएँगे।” ऐसा, मैं अक्सर करता हूँ। कोई सामान अगर बिना पॉलीथिन के घर लाया जा सकता है, तो हाथ में या फिर गाड़ी में ऐसे ही ले आता हूँ। उस वक़्त दिमाग़ में यह रहता है कि फ़ालतू का कचरा क्यों ही इकट्‌ठा करना? हालाँकि, मैं इतना अनुशासित भी नहीं हूँ कि घर से हमेशा थैला लेकर जाऊँ। इसीलिए जब कभी सामान अधिक हो जाता है, तो पॉलीथिन में ले भी आता हूँ। इस तरह, पॉलीथिन के प्रयोग के प्रति मिला-जुला सा व्यवहार रहा है मेरा अब तक।

अलबत्ता, उस दिन मेरा इंकार सुनकर दुकानदार जिस तरह से चौंका और फिर उसने जो सवाल किया, वह मुझे सोचने पर मज़बूर कर गया। वह बोला, “क्या! पॉलीथिन नहीं लेनी, इन्दौर से आए हो क्या?” “मतलब?”, मैंने पूछा। “अरे, इधर भोपाल में पॉलीथिन लेने से कौन मना करता है। यहाँ तो लोग गरम चाय तक पन्नी में ले जाते हैं। हाँ, इन्दौर में ज़रूर लोग मना करते हैं, पॉलीथिन के लिए।”  उसकी बात सुनकर मैंने फिर कुछ नहीं कहा। चुपचाप सामान लेकर घर लौट आया, लेकिन दिमाग़ में ज़रूर यह बात अटक गई कि “देखो, कैसे किसी शहर की पहचान वहाँ रहने वालों के व्यवहार से बना करती है।” निश्चित रूप से, आज इन्दौर अगर देशभर के साफ-सुथरे शहर के रूप में पहचाना जाता है, तो इसकी वजह भी वहाँ के सजग लोग ही हैं।

इतना ही नहीं, इन्दौर सम्भवत: देश का पहला शहर है जहाँ भीख देना और लेना अपराध घोषित किया गया। वहाँ इस बाबत कुछ लोगों पर मामले भी दर्ज़ होने शुरू हो गए हैं। यह क़दम शहर को पेशेवर भिखारियों से मुक्त करने के लिए उठाया गया। इसके भी अच्छे नतीज़े दिख् रहे हैं। यहाँ तक कि भोपाल शहर में भी इन्दौर की तरह भीख देने-लेने को अपराध घोषित कर दिया गया है। सिर्फ़ यही नहीं, इन्दौर के जैसे यहाँ भी साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था बेहतर करने कीे क़ोशिश लगातार की जाती है। लेकिन यहाँ इन दोनों मामलों में ज़मीनी हालात इन्दौर से क़मतर ही हैं। यहाँ न तो वैसी सफ़ाई है और न पेशेवर भिखारियों पर रोक-टोक ही नज़र आती है। लोग भी उन्हें बेधड़क भीख देकर ‘तथाकथित पुण्य’ कमाते हुए दिखते ही रहते हैं।

यही कारण है कि जब से स्वच्छ भारत अभियान शुरू हुआ है, तभी से लगातार सुबह-सुबह रोज भोपाल की गलियों, चौराहों में नगर निगम की कचरा गाड़ियाँ कानफोड़ू भोंपुओं पर स्वच्छता का गीत बजाते हुए निकलती है। उसमें अपील होती है, “मेरा भोपाल, मेरी ज़िम्मेदारी’। इसके अलावा कई सरकारी अभियान, मीडिया की अपील, वग़ैरा भी होती रहती है, ‘स्वच्छता में भोपाल को नम्बर-एक बनाना है’। लेकिन न तो शहर के लोग अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं और न शहर सफ़ाई में नम्बर-एक हो पाया है। हो भी नहीं सकता। शहर की पहचान आख़िर वहाँ रहने वालों के व्यवहार से ही बनती है। इन्दौर के लोगों ने यह बात समझ ली है। भोपाल और देश के दूसरे शहरों के लोगों को भी जितनी जल्दी यह बात समझ आ जाए, उतना बेहतर।

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