बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
जासूस छिपकली के पैरों से टोह ले रहे थे। झाड़-झंखाड़ और नालों-पनालों से भरे लम्बे-चौड़े विस्तार में एक जगह पर उनकी नजर रुक गई। वहाँ न चौकी-पहरे थे, न मोर्चे। वैसे तो पहरी निश्चित समय पर गश्त लगा जाता था, लेकिन आज थोड़ी ढील ही हुई थी। बारिश जोरों पर थी। वायव्य में विशालगढ़ की तरफ भाग निकलने के लिए यही राह ठीक रहेगी। जासूसों ने राह को नज़रों में बसा लिया। और आगे किले की तरफ बढ़ चले, राजे को शुभ सूचना देने।
रात का पहला पहर था। बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। झंडा और मूसलधार वर्षा। बीच-बीच में बिजली कौंध जाती। बिजली की चमक में भीगी धरती काँपती नजर आती। बरसती आड़ी-तिरछी धाराएँ, हवा से सरसराते पत्ते और कलकल बहता पानी! इस माहौल में करीब छह-सात सौ मावले चल पड़ने की तैयारी में अँधेरे में बैठे हुए थे। महाराज के साथ बाजी प्रभु देशपांडे जाने वाले थे। तय हुआ कि महाराज को पालकी ही में ले जाया जाएगा। जाना था विशालगढ़। वह सिर्फ 20 कोस की दूरी पर था। लेकिन इस समय पन्हाला को एक शक्तिशाली अजगर ने लपेट रखा था। उसको बेखबर रखकर चम्पत हो जाना, बड़ी चुनौती थी। ईश्वर न करे, पर अगर यह अजगर जाग पड़ा तो?
फिर भी महाराज चल पड़े। रात 10 बजे का समय होगा। आषाढ़ पौर्णिमा की रात। लेकिन चाँद काले बादलों के बहुत पीछे छिपा हुआ था। चलते समय महाराज किलोदार त्र्यम्बक भास्कर से बोले, “पन्त, हम चले। किला अब तुम्हारे हवाले। रक्षा का ध्यान रखना।” इसके बाद महाराज बाहर आ गए। पालकी में बैठे। तुरन्त मावलों ने पालकी को कंधों पर उठाया। चल पड़े। बाजी प्रभु साथ हो लिए। बारिश, झंझा, गर्जन-वर्जन और बिजली की कड़क, सब जारी थी।
महाराज की पालकी किले के पीछे की तरफ से पगडंडी से नीचे उतर रही थी।
रास्ता दिखाने के लिए जासूस पालकी के आगे-आगे चल रहे थे। सिद्दी जौहर की छावनी सचमुच ही गाफिल थी। शिवाजी कल शरण में आएगा ही। फिर इस आँधी-पानी में मोर्चे पर डटने की जरूरत ही क्या? बिस्तरे में बैठ थोड़ा आराम ही कर लें। यही सब सोचकर शाही मोर्चेवाले ढीले पड़ गए। इसी का फायदा उठाकर झाड़-झंखाड़ों में से, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर से महाराज की पालकी तेजी से गुजरने लगी। लेकिन पालकी के साथ चल रहे बाजीप्रभु को एक-एक क्षण युगों के समान लम्बा लग रहा था। हर कदम पृथ्वी-परिक्रमा करता प्रतीत हो रहा था। धुआँधार बारिश। बादलों की गड़गड़ाहट। बिजली की लरज। उनकी बेचैनी को और बढ़ा रही थी।
पालकी तेजी से दौड़ाई जा रही थी। चौकन्नी नजरें हर तरफ की टोह ले रही थीं। जासूस आगे-आगे चल रहे थे। राह दिखाते हुए। ढलान खत्म हुई। छावनी के बीच से निकल जाने वाली वह गुप्त राह करीब आने लगी। कैसी खतरनाक, कठिन राह। दुश्मन के बेखबर पहरेदारों में से किसी की नजर इस मावली करामात पर पड़ गई तो? इस राह के लिए मावलों की सारी कुशलता, चपलता, होशियारी और पुण्य दाँव पर चढ़ गया था। ऐन वक्त पर बिजली ही कौंध गई तो? क्या होगा? निस्सन्देह सत्यानाश ही होगा। पर हो तो हो। स्वतंत्रता की राह ऐसी ही होती है। तेजस्वी इतिहास ऐसी ही राहों से गुजरकर लिखा जाता है।
जान को दाँव पर लगानेवाले भगत पालकी को कन्धो पर लिए भागे चले जा रहे थे। हर तरफ सन्नाटा था। चौकियों से हटकर गाफिल पहरेदार सुस्ता रहे थे। उनकी गफलत का फायदा उठाकर पालकी आहिस्ता से निकल भी गई। अब रुकेगी विशालगढ़ पहुँचने पर ही। कीचड़ भरी राह पर मावले जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रहे थे। पालकी अब छावनी से काफी दूर निकल आई थी। पर हाय! दुर्भाग्य। सिद्दी जौहर के जासूसों ने पालकी को देख ही लिया। पहचान भी लिया। उन्होंने भाँप लिया कि शिवाजी राजे विशालगढ़ की तरफ भागे जा रहे हैं।
इधर, महाराज ने भी जान लिया कि उन्हें जासूसों ने देख लिया है। अब? द्रुतगति से आगे बढ़ने के सिवा दूसरा रास्ता ही नहीं था। दुश्मन पीछा करेगा, यह निश्चित था। और सचमुच ही जौहर की फौज सिद्दी मसूद के साथ शिवाजी महाराज का पीछा करने लगी। अब आगे-आगे भाग रहे थे मावले, महाराज और बाजी। वहीं पीछे से दौड़ा चला आ रहा था सिद्दी मसूद। थोड़ी ही देर में सिद्दी का अघाड़ी दल पालकी के नजदीक पहुँच गया। ‘पांढरं पाणी’ के पास झड़प हो गई। इसमें मसूद के दल को हारकर पीछे हटना पड़ा। लेकिन उसने फिर हमला किया।
इस बीच, दूसरा हमला होने से पहले सब किसी तरह गजापुर के घेडसिंड दर्रे तक बढ़ आए। यहाँ से विशालगढ़ चार कोस दूर था। वक्त नाजुक था। ऐसे में, बाजी ने जिद की। अनुनय-विनय की और महाराज को विशालगढ़ की तरफ रवाना किया। वह खुद दुश्मन को रोक रखने के लिए आधी फौज के साथ दर्रे के मुँहाने पर खड़े हो गए। तय हुआ कि जब तक महाराज किले पर पहुँचकर इशारे की तोप नहीं दागते, तब तक बाजी दरें में ही दुश्मन को रोक कर रखेंगे। इतने में ही सिद्दी मसूद का दूसरा हमला हो गया। घनघोर लड़ाई होने लगी। वह तारीख थी 13 जुलाई 1660 की।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
22- शिवाजी महाराज : शिवाजी ने सिद्दी जौहर से ‘बिना शर्त शरणागति’ क्यों माँगी?
21- शिवाजी महाराज : जब 60 साल की जिजाऊ साहब खुद मोर्चे पर निकलने काे तैयार हो गईं
20- शिवाजी महाराज : खान का कटा हुआ सिर देखकर आऊसाहब का कलेजा ठंडा हुआ
19- शिवाजी महाराज : लड़ाइयाँ ऐसे ही निष्ठावान् सरदारों, सिपाहियों के बलबूते पर जीती जाती हैं
18- शिवाजी महाराज : शिवाजी राजे ने जब अफजल खान के खून से होली खेली!
17- शिवाजी महाराज : शाही तख्त के सामने बीड़ा रखा था, दरबार चित्र की भाँति निस्तब्ध था
16- शिवाजी ‘महाराज’ : राजे को तलवार बहुत पसन्द आई, आगे इसी को उन्होंने नाम दिया ‘भवानी’
15- शिवाजी महाराज : कमजोर को कोई नहीं पूछता, सो उठो! शक्ति की उपासना करो
14- शिवाजी महाराज : बोलो “क्या चाहिए तुम्हें? तुम्हारा सुहाग या स्वराज्य?
13- शिवाजी ‘महाराज’ : “दगाबाज लोग दगा करने से पहले बहुत ज्यादा मुहब्बत जताते हैं”
12- शिवाजी ‘महाराज’ : सह्याद्रि के कन्धों पर बसे किले ललकार रहे थे, “उठो बगावत करो” और…
11- शिवाजी ‘महाराज’ : दुष्टों को सजा देने के लिए शिवाजी राजे अपनी सामर्थ्य बढ़ा रहे थे
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4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
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