भारत में सांकेतिक चुनाव प्रणाली की शुरुआत कब से हुई?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 8/10/2021

साल 1905 में अंग्रेजी सरकार ने बंगाल का विभाजन कर दिया। इसका मक़सद बताया, प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ाना। लेकिन इससे भारतीय शिक्षित वर्ग में संदेश गया कि सरकार उनके विचारों की अनदेखी का इरादा रखती है। इस बारे में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने लिखा था, “हमें लगता हैं, जैसे हमारा पूरा भविष्य दाँव पर है। बंगालीभाषी समाज के लिए बढ़ते समर्थन और उसमें बढ़ती आत्म-चेतना, व्याकुलता के मद्देनज़र जानबूझकर आघात किया जा रहा है।” उस दौर में एक पूर्व नौकरशाह थे, रोमेश चंद्र दत्त। साल 1900 के आसपास वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। उन्होंने तब वायसराय लॉर्ड कर्जन को खुले आलोचनात्मक पत्र लिखे थे। इनमें साबित करने की कोशिश की थी कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और भुखमरी के हालात सरकार की भूमि संबंधी नीतियों की वज़ह से बने हैं। कहा जाता है कि कर्ज़न ने ख़ुद दत्त को इसके लिए प्रोत्साहित किया था। ताकि वह इसका ज़वाब दे सकें। 

वैसे, अंग्रेजों ने हमेशा माहौल बनाकर रखा कि वे “भारत के गरीब, कृषक, सहनशील, विनम्र और शांत लाखों लोगों के अभिभावक हैं, अमानतदार हैं।” लेकिन ये बातें निश्चित ही ये शिक्षित भारतीयों और कांग्रेस सदस्यों के संबंध में नहीं कही जा सकतीं थीं क्योंकि 1905 के पहले तक इन दोनों वर्गों के लोग अधिकांश उच्च जातियों के थे। वे उन्हीं के हितों के लिए ही मुख्य रूप से काम करते थे। वे कृषि क्षेत्र में सुधारों का पुरजोर विरोध करते थे। ख़ासकर जोतदारों के अधिकारों से जुड़ी नीतियों का। इसके बावज़ूद कांग्रेस भारतीय आबादी में बढ़ती गरीबी के मसले पर अक्सर दुख प्रकट करती रहती थी। साथ ही इसका एकमात्र निदान बताती थी कि जनप्रतिनिधित्व से जुड़ी संस्थाओं की शक्ति और दायरा बढ़ाया जाए। कांग्रेस आश्वस्त थी कि यही “एक विकल्प लोगों के हालात सुधारने में मददगार साबित होगा।”

वहीं, सरकार ने तात्कालिक कार्रवाई का रास्ता चुना था। वह सुधारों के अपने एजेंडे पर बहुसंख्य आबादी का समर्थन हासिल करने का इरादा पाले थी। इसीलिए उसने विधायी परिषदों के विस्तार का विरोध किया। आधार ये बताया कि परिषदों के विस्तार का मतलब होगा, इनमें शिक्षित वर्ग के लोगों को और प्रतिनिधित्व मिलना। इससे ये लोग विकासोन्मुख कानूनों को बाधित करेंगे। वास्तव में ऐसा हुआ भी था। परिषदों ने पूर्व में कई सुधारवादी कानूनों को मनोनीत सदस्यों के बहुमत की मदद से रुकवाया भी था। इसीलिए 1892 के परिषद अधिनियम के जरिए मनोनीत सदस्यों की व्यवस्था ही बदल दी गई थी। विश्वविद्यालयों, व्यावसायिक प्रकोष्ठों, नगरपालिकाओं आदि को भी अब प्रांतीय परिषदों में अपने सदस्य भेजने का अधिकार मिल गया। इस तरह सांकेतिक चुनाव प्रणाली शुरू हो गई। 

ब्रिटिश संसद से 1892 का अधिनियम पारित कराने वालों में लॉर्ड कर्जन ख़ुद शामिल थे। लेकिन यह अधिनियम उनके प्रशासन के प्रगतिशील स्वरूप के लिए ही उलट साबित होने लगा। इसके अलावा उन्हें आशंका थी कि ब्रिटिश संसद, अनजाने में सही, भारत में प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था के विस्तार के बारे में सोच सकती है। जबकि शासन का तानाशाही लेकिन उदार स्वरूप भारतीयों जैसी अशिक्षित आबादी के लिए ज्यादा लाभकर है। वे यह भी जानते थे कि भारत में प्रतिनिधित्व वाली संस्थाओं का दायरा बढ़ने से होने वाले ख़तरों से इंग्लैंड के राजनेताओं को आगाह करने की ज़िम्मेदारी उन पर ही है। लिहाज़ा, इस पृष्ठभूमि में दत्त के साथ हुए पत्राचार ने उन्हें एक अवसर उपलब्ध करा दिया। इसके जरिए वे ब्रिटेन के लोगों को बता सकें कि अपनी शासित आबादी के हित में अंग्रेजों की उचित सोच को वही प्रशासनिक व्यवस्था अमल में ला सकती है, जिसे नाममात्र की विधायी संस्थाएँ बाधा न पहुँचाएँ। 

दत्त के पत्रों का ज़वाब देते हुए जो दस्तावेज़ तैयार किया, उसे ‘पेपर्स रिगार्डिंग द लैंड रेवेन्यू सिस्टम ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ शीर्षक से जनवरी-1902 में ब्रिटिश संसद में पेश किया गया। उस समय इसे ‘ब्रिटिश शासन के तहत भारत की भू-राजस्व नीति के इतिहास का सबसे उल्लेखनीय दस्तावेज बताकर तारीफ़ की गई थी।’ इसने अर्थव्यवस्था से जुड़ी सोच में मूलभूत बदलाव का संकेत दिया। उस समय भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर लगान निश्चित होता था। ज़मीन उपजाऊ है या नहीं, उसका उपयोग हो रहा है या नहीं, उस पर खेती हो पाई या नहीं, ऐसे कारणों के आधार पर लगान न माफ होता था और न कम। अन्य करों की तरह लगान कम-ज़्यादा भी नहीं होता था। राजस्व अधिकारी आश्वस्त थे कि ज़्यादा लगान वसूलने से भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। बल्कि अगर लगान कम वसूला गया तो ज़रूर पर्याप्त मात्रा में खेती नहीं होगी। अपव्ययता को प्रोत्साहन मिलेगा।  

हालाँकि दत्त ने सरकार की भूमि संबंधी नीति की जो आलोचना की थी, उसका मुख्य आधार ये था कि यह नीति ज़मींदारों और किसानों में भेदभाव कर रही है। उनका दावा था कि बंगाल जैसी स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था सामान्य किसानों के लिए ज्यादा फायदेमंद है। लिहाज़ा इसे पूरे देश में लागू करना चाहिए। जबकि कर्ज़न ने इन तर्कों को आसानी से ख़ारिज कर दिया। एक ये भी दलील दी गई कि लगान की मोटी रकम से किसान सुरक्षाहीन हो जाते हैं। अकाल आदि के मौके पर उनके पास अतिरिक्त फसल नहीं बचती। कर्ज़न ने इस तर्क को भी आँकड़ेबाज़ी से काट दिया। बताया कि भारतीय किसान अतिरिक्त फसल को पूँजी के तौर पर जमा कर के रखते तो हैं। लेकिन उसे कृषि के अलावा दूसरे कामों में ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। जैसे बेटियों की शादी में दहेज, भोज आदि पर। 

हालाँकि कर्ज़न ने दत्त के आरोपों का जो ज़वाबी दस्तावेज तैयार किया, उसका सबसे दिलचस्प पहलू दूसरा था। उन्होंने अपने ज़वाब में लगान के सिद्धांत को लागू करने के तरीके में बदलाव प्रस्तावित किए थे। उन्होंने लिखा था, “सरकार का काम है कि वह अधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए ऐसे सिद्धांत बनाए जिनमें संबंधित प्रांत की परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों का सम्मान हो। अधिकारियों को ऐसे नुसखे सुझाए जिससे वे कर संग्रह आदि के दौरान संतुलन और सहानुभूति बनाए रखें।” लिहाज़ा कर्ज़न के समय और उसके बाद से अकाल, महामारी जैसी परिस्थितियों में लगान वसूली में उदारता बरती जाने लगी। सरकार ने लगान का सिद्धांत छोड़ा नहीं। लेकिन उसे ‘कृषि आय पर कर’ के रूप में तब्दील कर दिया। इससे उसमें घट-बढ़ भी संभव हो सकी। 
(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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पिछली कड़ियाँ : 
48. भारत ब्रिटिश हुक़ूमत की महराब में कीमती रत्न जैसा है, ये कौन मानता था?
47. ब्रिटेन के किस प्रधानमंत्री को ‘ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने वाला’ माना गया?
46. भारत की केंद्रीय विधायी परिषद में सबसे पहले कौन से तीन भारतीय नियुक्त हुए?
45. कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल का डिज़ाइन किसने बनाया था?
44. भारतीय स्मारकों के संरक्षण को गति देने वाले वायसराय कौन थे?
43. क्या अंग्रेज भारत को तीन हिस्सों में बाँटना चाहते थे?
42. ब्रिटिश भारत में कांग्रेस की सरकारें पहली बार कितने प्रान्तों में बनीं?
41.भारत में धर्म आधारित प्रतिनिधित्व की शुरुआत कब से हुई?
40. भारत में 1857 की क्रान्ति सफल क्यों नहीं रही?
39. भारत का पहला राजनीतिक संगठन कब और किसने बनाया?
38. भारत में पहली बार प्रेस पर प्रतिबंध कब लगा?
37. अंग्रेजों की पसंद की चित्रकारी, कलाकारी का सिलसिला पहली बार कहाँ से शुरू हुआ?
36. राजा राममोहन रॉय के संगठन का शुरुआती नाम क्या था?
35. भारतीय शिक्षा पद्धति के बारे में मैकॉले क्या सोचते थे?
34. पटना में अंग्रेजों के किस दफ़्तर को ‘शैतानों का गिनती-घर’ कहा जाता था?
33. अंग्रेजों ने पहले धनी, कारोबारी वर्ग को अंग्रेजी शिक्षा देने का विकल्प क्यों चुना?
32. ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में भारत में शिक्षा की स्थिति कैसी थी?
31. मानव अंग-विच्छेद की प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले पहले हिन्दु चिकित्सक कौन थे?
30. भारत के ठग अपने काम काे सही ठहराने के लिए कौन सा धार्मिक किस्सा सुनाते थे?
29. भारत से सती प्रथा ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने क्या प्रक्रिया अपनाई?
28. भारत में बच्चियों को मारने या महिलाओं को सती बनाने के तरीके कैसे थे?
27. अंग्रेज भारत में दास प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ रोक क्यों नहीं सके?
26. ब्रिटिश काल में भारतीय कारोबारियों का पहला संगठन कब बना?
25. अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों ने भारतीय उद्योग धंधों को किस तरह प्रभावित किया?
24. अंग्रेजों ने ज़मीन और खेती से जुड़े जो नवाचार किए, उसके नुकसान क्या हुए?
23. ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ किस तरह ‘स्थायी बन्दोबस्त’ से अलग थी?
22. स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था क्यों लागू की गई थी?
21: अंग्रेजों की विधि-संहिता में ‘फौज़दारी कानून’ किस धर्म से प्रेरित था?
20. अंग्रेज हिंदु धार्मिक कानून के बारे में क्या सोचते थे?
19. रेलवे, डाक, तार जैसी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय विभाग किसने बनाए?
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17. अंग्रेजों को ‘लगान का सिद्धान्त’ किसने दिया था?
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