समीर, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 2/10/21
गाँधी जी भारत की तरह चिरन्तन हैं। वे भारत की महानता, बल, कमजोरी, सीमाएँ और सम्भावनाओं के प्रतीक हैं। जयन्ती के बहाने एक बार फिर हम उनकी और अपनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने का प्रयास करते हैं।
स्वातंत्रोत्तर मुख्यधारा के इतिहास में गाँधी जी भारतीय गणराज्य के नैतिक, संवैधानिक और राजनीतिक मूल्यों के स्रोत के रूप में अवतरित होते हैं। वे युगपुरुष हैं, जिनमें अपने देश-काल के धर्म, नीति और राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति की विहंगम दृष्टि और समझ है। समकालीन समाज को दिशा देने का प्रबल पुरुषार्थ है।
लेकिन परवर्ती गणराज्य ने गाँधी जी की जो छवि गढ़ी, उसमें मुख्यधारा की राजनीति की नवनैतिकता और संवैधानिकता को सही ठहराने का भाव नज़र आता है। सम्भवत: इसीलिए ‘सरकारी इतिहास लेखन’ में गाँधी जी के दर्शन के मूल तत्त्वों को भुला दिया गया। पीछे छोड़ दिया गया। जैसे- सनातन धर्म के प्रति उनकी निष्ठा, समर्पण, वर्णाश्रमधर्म पर चिन्तन, भक्ति, राम नामानुराग, जीव-दया, सत्य-सदाचार के प्रति दृढ़ आग्रह, ईसाई मतांतरण, गौहत्या, पाश्चात्य भोगवाद की निर्मम आलोचना, आदि सब। उनके इन विचारों से जुड़े हर साक्ष्य मानो मिटा दिए गए। इसकी जगह उन्हें ‘महात्मा’, ‘राष्ट्रपिता’ जैसे तमग़े देकर ख़ालिस किन्तु अव्यवहारिक राजनेता के स्तर पर ला खड़ा कर दिया गया। पन्थ कोई भी रहा हो, दक्षिण या वाम। तथाकथित साम्प्रदायिक या कथित धर्मनिरपेक्ष। गाँधी जी के साथ कोई भी न्याय नहीं कर सका।
ऐसे में, प्रश्न उठता है कि समस्या आख़िर कहाँ रही? तो इसका उत्तर है- धार्मिक राजनीति तंत्र के ह्रास में। हिन्दुस्तान में लगभग 800 साल से अधिक समय तक सत्ता तंत्र जनसाधारण के धार्मिक विश्वास, दर्शन, संस्कृति का विरोधी रहा है। उसे नेस्तनाबूद करता रहा है। सामाजिक संस्थाओं, नीति-नियम, आचार-व्यवहार के मूल्यों को खत्म करना इस सत्ता तंत्र के लिए हमेशा, हर शासक के काल में जैसे फायदे का सौदा रहा। और वह फ़ायदा उठाता भी रहा। फिर, अंग्रेजों के दौर में बढ़े पश्चिमी मानसिकता और शिक्षा वाले ग़ुलाम मानसिकता के अभिजात्य वर्ग ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा। उसने अपने निजी सांस्कृतिक मूल्यों को तिलाजंलि देकर मालिकों की भाषा, जीवनशैली, दर्शन को जीना और उसके हितों के लिए मर मिटना सीख लिया। इसके लिए इन सभी छद्म गाँधीवाद का सहारा लिया।
आज, गाँधी जी में ऐसे झूठ-फ़रेब और छद्म से आज़ाद करने की दरक़ार है। उन्हें आज़ाद करना चुनौती भरा है। लेकिन बेहद रचनात्मक कार्य भी। इसके लिए पहले ख़ुद को उन पश्चिमी चश्मों से मुक्त करना अपरिहार्य है, जिनको पहनकर हम अपनी परम्परा, नीति, मूल्य और संस्कृति को देखते हैं। उन्हें विदेशी आयातित विचारों के अपमिश्रण से दूषित करते हैं। हमें यह जानने, समझने, ध्यान करने और रखने की आवश्यकता है कि गाँधी जी इस तरह के अपमिश्रण और दूषण के सख़्त विरोधी रहे हैं। हमेशा। वे भारतीय धर्म, संस्कृति, परम्पराओं की शुचिता के पक्षधर रहे हैं।
गाँधी जी को आज़ाद करने का एक अन्य अर्थ यह भी है कि हम अपनी संस्कृति को सिर्फ वैचारिक-बौद्धिक स्तर पर ही न समझें। उसमें उतरकर, उन्हें जी कर और आत्मसात् कर, उसे आत्यन्तिक रूप से जानें। गाँधी जी अपने पूरे जीवनकाल में, सही मायनों में यही करते रहे। इसलिए अगर हम उनका अनुसरण करना चाहते हैं, तो हमें भी यह करना ही होगा। ऐसा करने पर हम स्वयं का और अपनी परम्परा का उद्धार करेंगे और गाँधी जी का भी, जिसमें हमारा निजी, सामाजिक और राष्ट्रीय हित छिपा है।
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(समीर, भोपाल में एक निजी कम्पनी में काम करते हैं। पढ़ने लिखने में विशेष रुचि रखते हैं। इस नाते #अपनीडिजिटलडायरी परिवार के सक्रिय सदस्य भी हैं।)
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