विश्व वन्यजीव दिवस : शिकारियों के ‘सक्रिय’ दल, मध्य प्रदेश की जंगल-फौज ‘पैदल’!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश

“घने जंगलों में निगरानी के लिहाज़ से ‘पैदल’ गश्त सबसे अच्छी होती है। इसलिए मध्य प्रदेश में हम सुनिश्चित करते हैं कि हमारी जंगल-फ़ौज के मैदानी निदेशक (फील्ड डायरेक्टर) से लेकर क्षेत्राधिकारी (रेंज अफसर) और वन-रक्षक तक सब पैदल गश्त करें। ताकि चप्पे-चप्पे की टोह मिले, तुरन्त कार्रवाई हो।”

यह कहना है कि मध्य प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ)-वन्यजीव शुभरंजन सेन का। उनकी बात में कुछ गलत भी नहीं है। मगर आम बोलचाल में ‘पैदल’ शब्द का अर्थ धीमी क्रिया-प्रतिक्रिया से भी लगाते हैं। इस लिहाज़ से, संयोग कहें या दुर्योग पीसीसीएफ सेन की बात उनके अपने विभाग की क्रिया-प्रतिक्रिया पर ही सटीक बैठती है। ख़ास तौर पर मध्य प्रदेश में बाघ, तेंदुआ जैसे वन्यजीवों के शिकार के मामले में।

ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं। अभी शनिवार, एक मार्च को ही बालाघाट के जंगलों में एक बाघ का शव मिला है। उसके गले में फ़न्दा था, जिसकी वज़ह से वह न ठीक से खा-पी सका और न ही पूरी साँस ले सका। लगभग 15 दिन तक वह इसी हालत में घूमता रहा। लेकिन ‘पैदल चप्पे-चप्पे की टोह’ लेने वाली जंगल-फ़ौज इसकी भनक नहीं लगी। स्थानीय सूत्र बताते हैं कि 28 फरवरी, शुक्रवार को गश्ती दल ने इस बाघ को देखा, लेकिन वह अन्दाज़ नहीं लगा सका कि उसकी हालत ख़राब है। अगले दिन उसे झाड़ियों में मृत पाया। अब जाँच की जा रही है। 

यही नहीं, अभी सात फरवरी को बाँधवगढ़ बाघ संरक्षित क्षेत्र (बीटीआर) की पनपथा रेंज में एक वयस्क बाघ का शव मिला। मारने वालों ने उसका शव जमीन में गाड़ दिया था। वन विभाग को घटना की ख़बर तीन-चार दिन बाद मिली। तब जाकर दो आरोपी पकड़े गए। मंडला के कान्हा बाघ संरक्षित क्षेत्र (केटीआर) में 28 जनवरी के आस-पास दो साल की बाघिन मरी पाई गई। उसकी जानकारी भी वन-अमले को बाद में ही लगी। इसी तरह, जनवरी महीने में सिवनी के पेंच बाघ संरक्षित क्षेत्र में एक बाघिन का शव मिला था। उस मामले में भी यही हाल रहा।

इन मामलों में ग़ौर करने की बात ये रही कि वन-अधिकारियों ने किसी बाघ या बाघिन की मौत को ‘शिकार’ नहीं माना। बावज़ूद इसके कि जनवरी के आख़िरी हफ़्ते में ही वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो (डब्ल्यूसीसीबी) ने पूरे देश में चेतावनी जारी की थी। इसमें बताया था कि बाघ के शिकारियों के सात गिरोह पूरे देश में ‘सक्रिय’ हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में, चूँकि बाघ अधिक हैं, इसलिए वहाँ शिकारी गिरोहों का ख़तरा अधिक माना।

मध्य प्रदेश में भी बाँधवगढ़, पन्ना, कान्हा, पेंच, सतपुड़ा को ज्यादा संवेनशील बताया गया। इसलिए कि वन्य जीवों के शिकार में माहिर पारधी और बहेलिया जैसी जनजातियों के शिकारी इन्हीं क्षेत्रों के आस-पास (कटनी, सीहोर, रायसेन जैसे जिलों में) अधिक रहते हैं। यानी जिस वक्त शिकारियों की सक्रियता का देशव्यापी अलर्ट जारी हुआ और प्रदेश के जिन क्षेत्रों को शिकार के लिहाज से संवेदनशील समझा गया, लगभग उसी वक्त, उन्हीं क्षेत्रों में तीन बाघों की मौतें हुईं। फिर भी उनकी मौतों के पीछे शिकारियों की सक्रियता की आशंका तक नहीं जताई गई! 

यही नहीं, महाराष्ट्र में पकड़े गए शिकारियों से हुई पूछताछ के आधार पर डब्ल्यूसीसीबी ने जो चेतावनी जारी की थी, उसी पड़ताल में शिकारियों ने माना था कि उन्होंने 2023 में बालाघाट में दो बाघों को मारा था। फिर भी, पीसीसीएफ सेन की अपनी दलील है, “सुअर जैसे दूसरे जंगली जानवरों को मारने के लिए लगाए बिजली के तारों या आपसी संघर्ष से बाघों की मौत हो रही है। वैसे भी, बाघों को आजकल शिकारी इस तरह नहीं मारते। उनका शिकार लोहे का ख़ास ट्रैप (फंदा या पिंजरा) लगाकर किया जाता है। फिर भी जाँच करा रहे हैं। कार्रवाई भी करेंगे।”

ठीक है, मान लेते हैं। तो फिर जबलपुर के मामले का क्या? वहाँ पिपरिया रेंज में चार फरवरी को एक तेंदुए के शिकार की पुष्टि हो चुकी है। हालाँकि उसकी जानकारी भी वन-विभाग को तब ही मिली, जब शिकारी तेंदुए के पीछे वाले पैरों के पंजे काटकर ले भागे? अलबत्ता, इस प्रश्न का बेहतर ज़वाब वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय वरिष्ठ कार्यकर्ता अजय दुबे देते हैं, “दरअस्ल, ऐसी घटनाओं के पीछे तीन-चार कारण हैं। पहला- मध्य प्रदेश में वन्यप्राणी संरक्षण और प्रबन्धन में लगे वन अधिकारियों तथा कर्मचारियों की कमी है। लगभग 30% तो वन-रक्षक ही कम हैं। ऊपरी स्तरों पर भी पर्याप्त अधिकारी नहीं हैं। दूसरा- जो अमला है, उसे ऐसे मामलों से निपटने का प्रशिक्षण नहीं है।”

दुबे बताते हैं, “वन विभाग का मुख़बिर तंत्र भी बेहद कमज़ोर है। ज़्यादातर मामलों में वन्यजीवों के शिकार के बाद ही वन अमले को सूचना मिलती है। इससे भी बड़ी बात कि शिकारियों या उनके मददग़ारों में कानून का भय नहीं है। बाघ जैसे संरक्षित वन्यजीवों की मौत के मामले में भी आज तक प्रदेश में न तो किसी की जिम्मेदारी तय हुई और न किसी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई। पन्ना बाघ संरक्षित क्षेत्र का उदाहरण है। साल 2008 में जब पन्ना को शिकारियों ने बाघविहीन किया, तब जाँच रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया कि वन अधिकारियों और कर्मचारियों ने शिकारियों की मदद की थी। लेकिन बताइए, अगर आज तक उस मामले में किसी को सजा हुई हो तो?”

इन तमाम मुद्दों और प्रश्नों पर पीसीसीएफ सेन की प्रतिक्रिया मिश्रित सी मिलती है, “हाँ, ये सही है कि हमारे वन अमले में 30% वन रक्षक कम हैं। बहुत से लोग सेवानिवृत्ति की कग़ार पर हैं। रेंजर, डीएफओ, एसीएफ स्तर तक भी ज़रूरत के हिसाब से अधिकारी नहीं हैं क्योंकि 1990 के दशक के आखिरी वर्षों से अगले 10-15 साल तक भर्तियाँ नहीं हुईं। अब जाकर नए लोग आने शुरू हुए हैं। उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। मुख़बिर तंत्र भी मज़बूत करने की ज़रूरत मैं मानता हूँ। लेकिन जो उपलब्ध संसाधन हैं, काम तो उन्हीं से करना है। हम कर भी रहे हैं। उनके नतीज़े भी आ रहे हैं। तभी तो हमारी स्टेट टाइगर स्ट्राइक फोर्स (एसटीएसएफ) आज देश में सबसे अच्छी है!”

दुबे और सेन की प्रतिक्रियाओं के बर-अक्स तस्वीर अधिक साफ हो अलबत्ता, इसके लिए कुछ तथ्यों और जानकारियों पर गौर कर सकते हैं। मसलन- मध्य प्रदेश में आठ बाघ संरक्षित क्षेत्र हैं। नौवाँ (माधव नेशनल पार्क, शिवपुरी) बन रहा है। वर्तमान में इनमें 900-1,000 के आस-पास बाघ होने का अनुमान (2022 की गणना के अनुसार-785) है। इनमें से 46 बाघों की मौत साल 2024 में दर्ज़ हुई। इसी तरह, प्रदेश में लगभग 4,000 तेंदुए होने का अनुमान है। यह संख्या देश में सर्वाधिक है। इनके बारे में साल 2021 की एक जानकारी है। उसके मुताबिक, उस साल शुरुआती आठ महीनों में ही 56 तेंदुओं की मौत हुई थी। जानकारों की मानें तो अधिकांश मामले शिकार के थे।

हालाँकि इन सभी में से किन्हीं मामलों में न तो ऐसी कोई बड़ी गिरफ्तारी हुई, जो चर्चित रही हो, और न किसी की ज़िम्मेदारी तय हुई। वैसे, जिम्मेदारी से याद आया कि बीते साल अक्टूबर में बाँधवगढ़ में 10 हाथियों की भी जहरीली फसल खा लेने से मौत हुई थी। तब बाँधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के तत्कालीन निदेशक गौरव चौधरी छुट्टी पर थे। उनका फोन भी बन्द मिला था। जबकि उनकी जगह प्रभार सँभाल रहे फतेह सिंह निनामा को भी हाथियों को बचाने के लिए तुरन्त कार्रवाई न करने का ज़िम्मेदार माने गए थे। दोनों निलम्बित ही हुए थे, बस।

और हाँ, भारतीय वन सेवा के अधिकारी शुभरंजन सेन भी उसी घटना के बाद राज्य के पीसीसीएफ बने थे। हालाँकि उसके बाद आगे अधिक कुछ हुआ हो, ऐसी जानकारी अभी तो उपलब्ध नहीं है। सो, इन जानकारियों, तथ्यों ,सन्दर्भों से स्पष्ट हो गया होगा कि मध्य प्रदेश की जंगल-फ़ौज को ‘पैदल’ क्यों लिखा गया!! 

आज, तीन मार्च को विश्व वन्यजीव दिवस होता है। दुनियाभर के वन्यजीवों के जीवन, उनकी सुरक्षा के बारे में सोचने का दिन। इन तथ्यों, जानकारियों पर प्रतिक्रियाओं पर ग़ौर कीजिए और सोचिए! 

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(नोट : पीसीसीएफ श्री शुभरंजन सेन जी और अभय दुबे जी के साथ नीलेश द्विवेदी ने फोन पर बात की है।) 

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