ख़ुद के अंदर कहीं न कहीं, तुम अब भी मौजूद हो

ज़ीनत ज़ैदी, दिल्ली

मैं मिल जाती हूँ ख़ुद से
जब हवा मुझे छूकर गुज़रती है 

वो याद दिलाती है मुझे बार बार
कि मैं मौजूद हूँ

सूखे पत्तों की आवाज़ जैसे
मेरे लबों से निकला गीत हो
बादलों से बहता पानी
मेरी आँखों का नीर हो

ये पेड़ ये धरती
ये सूरज-ओ-चाँद
ये बारिश ये कोहरा
ये सावन की सांझ
कहते हैं चीख-चीख के
कि तुम अब भी मौजूद हो

तुम जो असल तुम हो
न कि वो जो तुम दिखाई देती हो
क्यूँकि ये रियाकारी तो ज़माने तक है
मगर ख़ुद के अंदर कहीं न कहीं
तुम अब भी मौजूद हो।। 
——
(ज़ीनत #अपनीडिजिटलडायरी के सजग पाठक और नियमित लेखकों में से हैं। दिल्ली के आरपीवीवी, सूरजमलविहार स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ती हैं। लेकिन इतनी कम उम्र में भी अपने लेखों के जरिए गम्भीर मसले उठाती हैं।अच्छी कविताएँ भी लिखती है। वे अपनी रचनाएँ सीधे #अपनीडिजिटलडायरी के ‘अपनी डायरी लिखिए’ सेक्शन या वॉट्स एप के जरिए भेजती हैं।)
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