चिट्ठी, गुमशुदा भाई के नाम : यार, तुम आ क्यों नहीं जाते, कभी-किसी गली-कूचे से निकलकर?

दीपक गौतम, सतना मध्य प्रदेश

प्रिय दादा

मेरे भाई तुम्हें घर छोड़कर गए लगभग तीन दशक गुजर गए हैं, लेकिन तुम्हारी याद के छींटे कभी- कभी सुख-चैन में तेजाब की तरह गिरते हैं और सब धुआँ-धुआँ हो जाता है। आज की रात भी कुछ ऐसी ही बीत रही है। सब सो गए हैं। चारों तरफ सन्नाटा है। घड़ी की टिकटिक साफ सुनाई दे रही है। आधी रात गुजर चुकी है और नींद आँखों से गायब है। बाहर मौसम बेहद खराब हो रहा है, जैसे इन दिनों अन्दर का मौसम बेहिसाब उमड़ते-घुमड़ते तूफानों और अँधेरे में घिरा हुआ है। ठीक वैसा ही हाल घर के अन्दर का है। बत्ती पहले ही गुल हो चुकी है और बादलों ने बेमौसम गरजना-बरसना शुरू कर दिया है। यूँ लग रहा है जैसे बरसती बूँदों के साथ कुछ और भी आसमान से बरस रहा है। यादों की एक बदरी ने जे़हनी ग़लीचों को गीला कर दिया है। बाहर पसरे सन्नाटे को चीरते ये गरजते बादल अन्तस को भिगो रहे हैं, हवा के तेज थपेड़े बेचैनियों को हवा दे रहे हैं। 

प्रिय दादा

मेरे भाई सालों से रूह में जज़्ब एक यादों का ग़ुबार अन्दर हिलोरें मार रहा है। भोपाल से रुख़सती लिए पाँच माह से भी ज़्यादा का वक़्त बीत गया है। वहाँ से कूच करते वक़्त घर के सामान के साथ-साथ यादों की कुछ पोटली भी उठा लाया था। आज जब कुछ किताबें खोजने के बहाने बन्द गठ्ठरों को खोला तो सालों से सहेजकर रखी गई एक बेजान सी चीज ने मुझे झकझोर कर रख दिया है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इससे पहले कभी इससे सामना नहीं हुआ था। हर बार इसे देखकर सुखद अनुभूति ज़्यादा होती थी, लेकिन न जाने क्यों आज इस काठ के ‘राइटिंग पैड’ को देखकर दिल पसीज गया। ये मेरे दादा का ‘राइटिंग पैड’ है, जिसे उनके बाद भैया ने और फिर मैंने इस्तेमाल किया। कई इम्तिहानों के पर्चे इसी पर कॉपी रखकर हल किए हैं। लगभग डेढ़ दशक से ये राइटिंग पैड मेरे साथ शहर-दर-शहर फिर रहा है। अब वापस सतना आ गया है। इस पैड ने याद दिला दिया है वो नाम, जिसे अब हम चाहकर भी ले नहीं पाते- साकेत गौतम (मेरे बड़े भाई, जो पिछले 30 साल से लापता है)। उनके यार-दोस्त अब भी उनके बारे में पूछा करते हैं। दादा, तुम्हें याद होगा कि बब्बा और बाई हमेशा तुमको पुत्तु या अंटू ही कहते थे। अफ़सोस कि वे दोबारा अपने पोते को देख लेने की अधूरी तमन्ना लिए ही दुनिया से विदा हो गए। दादा, तुम्हें इतने सालों में हमारी याद आई हो या नहीं हम सब तुम्हें बहुत याद करते हैं। गाँव का वो पीपल चौराहा तुम्हें याद करता है। अम्मा तुम्हें याद करते हुए अब भी घन्टों तक रोती रहती हैं। वो तुम्हारे यार-दोस्त तुमसे गणित के सवाल टहलते हुए हल कराना चाहते हैं। यार तुम आ क्यों नहीं जाते, कभी-किसी गली-कूचे से निकलकर? 

प्रिय दादा

मेरे भाई तुम बहुत याद आते हो। आज भी, लम्बे समय बाद तुम्हारे लिए आँखें पसीज आई हैं। यूनिवर्सिटी के दिनों में भोपाल में एक उदास शाम गाँव-घर और अम्मा को याद करते जब दिल भर आया था, तब तुम भी बहुत याद आए थे।  तब मैं खुली सड़क पर देर शाम एमसीयू के गेट से लेकर रचना नगर के अपने कमरे तक आँखों से बरसता हुआ ही गया था। तब भैया ने फोन पर दिलासा देते हुए कहा था, ‘‘तू उसे याद मत कर जो हमें छोड़कर चला गया है। अपने माँ-बाप को रोता-बिलखता छोड़ गया। वह हमारा कुछ था ही नहीं। अपना ध्यान रख। पढ़ाई करने गया है, तो उस पर मन लगा। वहाँ से कुछ बनकर निकल। अपने सपने पूरे कर। उसने तो बडे़ बेटे और भाई का कोई फ़र्ज़ ही नहीं निभाया।’’ उसके बाद से आज पहली बार लगभग एक दशक बाद तुम्हारी याद में दिल पसीजा है। मुझे लगा कि जैसे सीने में कोई भारी बोझ सा है। बस, इसीलिए शब्दों के सहारे बहने के लिए मज़बूर हो गया। क्योंकि सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं है मेरे पास। जी हल्का करने का इससे बेहतर तरीका मेरे लिए कुछ भी नहीं है। यूँ तो बरसती आँखों के साथ लिखना अक्सर हुआ है, लेकिन आज बात कुछ अलग है। मुझे लगता है सारा दोष ई ससुरा यादों के इस पुतले का भी है। ना जाने इसमें बचपन से लेकर अब तक की इतनी अज़ब-गज़ब चीजें सँभालकर रखी हैं कि हर चीज बेजान होते हुए भी स्मृतियों के एक अलग संसार में ले जाती है और दिल पसीज जाता है। यूँ भी लिखत-पढ़त की दुनिया छूट जाने के बाद से न जाने दिल-दिमाग़ कौन-कौन सी याद की गलियों में भटकता रहता है। कभी-कभी लगता है कि यादें ‘अलिफ़ लैला’ वाले जिन्न की तरह होती हैं, नाम लिया और हाज़िर।

प्रिय दादा,

मेरे भाई ये भी महज् संयोग है कि आज मैं जिस शहर में बैठकर ये सब लिख रहा हूँ, यहीं इसी सतना से तुम आखिरी बार मई 1996 में रुख़सत हुए थे। तब से अब तलक नहीं लौटे! न जाने कहाँ हो? किस हाल में हो? हो भी या नहीं? हम तुम्हें याद भी हैं या नहीं? हमें कुछ भी पता नहीं। मेरे और मंझले भैया (आदित्य गौतम) के लिए तो तुम हमेशा दादा ही रहे हो। एक बडे़ भाई की तरह स्नेह और प्रेम की चाशनी से लबालब। तुम्हारी जितनी यादें जे़हन में हैं, वो सब इस लकड़ी के छोटे से टुकडे़ ने दिल-दिमाग़ में कुडे़ल दी हैं। एक पिता सा स्नेह था तुम्हारे अन्दर। मैं कुछ भी नहीं भूला…वो तुम्हारे पैरों में बैठकर झूला-झूलना, तुम्हारे साथ सुबह की सैर, रोज सुबह वो नीम की कड़वी गोलियाँ गटकना, शरारतों में पड़ने वाली अम्मा की मार से बचाना और किताबों से यारियाँ भी तो तुम्हारी देन है। तुम्हारा मुंशी प्रेमचन्द जी और दूसरी किताबों वाला ज़्यादातर कलेक्शन दीमक चाट गई। फिर भी जो बच सका है, मैने सहेज रखा है। पिता जी ने उस काठ की अलमारी को भी यही कहते हुए सही करवाया कि “पुत्तू के अलमारी आय जित्ती टैम लौ ठीक रहि सकै औ चल जाय ता चलाय लो ईमा याद बसी है ओकी”।

प्रिय दादा

मेरे भाई तुम्हें पता है, तुम्हारे साथ छत की मुंडेर पर बैठकर दुनियाभर के सवालों के ज़वाब पा लेने की मेरी वो चाहतें अब भी जवान हैं। तुमसे बतकही करना मेरा सबसे पसन्दीदा शगल था। कभी-कभी लगता है कि तुम होते तो मैं ऐसा न होता कि जैसा हूँ। शायद तुम्हारी सोहबत में अपनी लिखत-पढ़त कुछ और निखर गई होती। गोया कि मैं और बेहतर इंसान होता। तुम मुझे संस्कृत पढ़ाना चाहते थे और ख़ुद गणित को घोलकर पी गए थे। दादा मैं तुम्हारी इच्छानुसार संस्कृत पढ़कर प्रकाण्ड तो नहीं हो पाया, क्योंकि तुम्हारे जाने के बाद वो भी जीवन से चली ही गई। शायद तुम्हारे अन्दर गणित बची हो तो हिसाब लगाना कि हम सब के लगभग पिछले 25 साल तुम बिन कैसे कटे होंगे। तुम्हारे सारे शिक्षक अब तक कहते हैं, “साकेत होता तो गणित के लिए कुछ न कुछ जरूर रचता।” न जाने तुम कहाँ हो और क्या रच रहे हो? मुझे याद है कि गणित छोड़कर बाकी विषयों में हमेशा तुम्हारे नम्बर कम आते थे। बोर्ड के इम्तिहानों में गणित में 100 में 99.9 और बाकी विषयों में पासिंग मार्क के कुछ ऊपर ही होते थे। मुझे तुम्हारी वही छवि सबसे ज्यादा याद है, जिसमें तुम अपनी कुर्सी-टेबल पर बैठे देर तक गणित के सवाल हल करते रहते थे। जब भी घर पर होते तो कुर्सी-टेबल और सवाल-ज़वाबों से चिपके ही रहते थे।

प्रिय दादा

मेरे बड़े भाई, तुम्हारे साथ हुई वो आखिरी नोंक-झोंक भी अब तक ताज़ा है। गाँव से अपने इम्तिहान के लिए तुम सतना जा रहे थे और उसके पहले हम दोनों ने चौंके (रसोई) में एक साथ बैठकर खाना खाया था। तुम बैंगन के भुर्ते को मछली बोलकर मुझे चिढ़ा रहे थे। तब अम्मा ने डाँट लगाते हुए कहा था, “खा लेय दे ओहि वैसै आलू छोड़े कुछु खाय नहीं”। मेरे ज़्यादा रूठ जाने के बाद तुमने गुड़ की एक ढेली देकर गोद में उठाकर मुझे मनाया था। मुझे याद है, तुम उसके बाद फिर कभी गाँव नहीं लौटे। आई तो बस तुम्हारी ग़ुमशुदगी या कहीं चले जाने की एक ख़बर। मुझे याद है, 7वीं के इम्तिहान ख़त्म ही हुए थे। रिजल्ट आया था। उसी समय तुम्हारी कक्षा के साथी और गहरे दोस्त आशीष सिंह परमार भैया अपने इम्तिहान देकर सतना से गाँव लौटे थे। उन्होंने बताया था कि तुम बीएससी के इम्तिहानों में पर्चा देने के लिए नहीं बैठे हो। गाँव से सतना तो गए पर पर्चे नहीं दिए। सन् 1996 की तपती मई के वो आख़िरी दिन थे, जब ये खबर आई और आग की तरह पूरे गाँव में फैल गई। गाँव का कच्चा घर भी उन्हीं दिनों पक्का हो रहा था। मकान का काम ठप पड़ गया। देखते ही देखते घर में मातम सा पसर गया। मैं भी आँगन में बैठकर सिसक रहा था कि तुम तो इम्तिहान के बाद लौटने का बोलकर गए थे! तुमने कहा था कि बुआ के घर उचेहरा लेकर जाओगे मुझे। सिद्धू को याद करते हुए तुमने कहा था कि हम दोनों को तैरना भी सिखाओगे। दादा तुम आख़िर क्यों नहीं लौटे? उसके बाद से अब तक साल-दर-साल तुम्हारी तलाश और याद का तो जैसे एक युग ही बीत गया है। सारी कोशिशें नाक़ामयाब और नतीज़े सिफ़र रहे हैं। फिर भी उम्मीद के दीये हमारे दिलों में रौशन हैं कि शायद तुम कभी लौटकर आओ।

प्रिय दादा

मेरे भाई, दादा तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि कई साल हम सबने तुम्हारी खोज में बस यूँ ही नीरस सा जीवन बिताकर निकाल दिए। हर होली-दीवाली आँसुओं में डूबी होती और पकवानों को खाने से पहले तुम्हारी याद के आँसू गटके जाते थे। परिवार के दूसरे बेटों की शादियों पर अम्मा-पापा तुम्हें ही याद करते और कहते कि अंटू होता तो अब उसकी भी शादी कर देते। तुमने तो जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही हमसे विदा ले ली थी। अब यदि कहीं होगे तो यकीनन 40 के पार होगे। तुम्हारे जाने के बाद बहुत कुछ बदल गया है। तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि अम्मा अब भी नींद से चौंककर उठ जाती हैं। पापा तुम्हें याद करके सबके सामने आँसू छुपा लेते हैं। अम्मा अब भी तुम्हें याद करते हुए अक्सर रोती रहती हैं। रो-रो कर उनके आँसू भी सूख गए हैं। बुआ-फूफा, मामा-मामी, चाची, भैया और जिज्जी से लेकर बाकी सब भी तुम्हें हमेशा याद करते हैं। न जाने तुम कहाँ हो? तुम्हारे आने की कोई ख़बर न सही, कम से कम न होने की ही ख़बर आ जाए, तो दर्द से थोड़ी राहत मिले। क्योंकि कभी-कभी लंबे इंतिज़ार और झूठी उम्मीद का बने रहना भी बहुत तकलीफ़देह होता है। प्रिय दादा, मेरे बड़े भाई, जानते हो, दर्द जब तक आँसू बनकर आँख की पोर से नहीं टपक जाता, रूह बेचैन और ज़िस्म बेजान रहता है…!! जहाँ भी हो, आबाद रहो। ग़र हो सके, तो एक बार लौट आना, चाहो तो फिर चले जाना अपनी दुनिया में। हम तुम्हारे होने से ही खुश हो लेंगे। मिस यू एण्ड लव यू 💝।

बेमौसम बारिश की तरह बरसती यादों के साथ एक रात तुम्हें याद करता हुआ तुम्हारा छोटा भाई।

© दीपक गौतम

#बेपतेकीचिट्ठियाँ #आवाराकीचिट्ठियाँ #आवाराकीडायरी 

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(दीपक मध्यप्रदेश के सतना जिले के गाँव जसो में जन्मे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से 2007-09 में ‘मास्टर ऑफ जर्नलिज्म’ (एमजे) में स्नातकोत्तर किया। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में लगभग डेढ़ दशक तक राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, राज एक्सप्रेस और लोकमत जैसे संस्थानों में कार्यरत रहे। साथ में लगभग डेढ़ साल मध्यप्रदेश माध्यम के लिए रचनात्मक लेखन भी किया। इन दिनों स्वतंत्र लेखन करते हैं। बीते 15 सालों से शहर-दर-शहर भटकने के बाद फिलवक्त गाँव को जी रहे हैं। बस, वहीं अपनी अनुभूतियों को शब्दों के सहारे उकेर देते हैं। उन उकेरी अनुभूतियों काे #अपनीडिजिटलडायरी के साथ साझा करते हैं, ताकि वे #डायरी के पाठकों तक भी पहुँचें। पाँच साल पहले लिखा गया यह पत्र भी उन्हीं प्रयासों का हिस्सा है।)

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