‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा’ यानि बड़ों की आज्ञा मानना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा है!

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश

एक वैष्णव अथवा तो साधक की साधना का अनुशीलन -आरम्भ आनुगत्य से होता है, परिणति सर्वभावेन शरणागति अर्थात् पूरी तरह शरण में जाने से होती है। गहराई से देखें तो इनमें कोई अन्तर भी नहीं। अधिक नुक्ताचीनी करनी हो तो मात्रात्मक भेद की कल्पना की जा सकती है। किंन्तु साधक की दृष्टि से कुछ ऐसा कहना भी नहीं बनता क्योंकि यहाँ कार्य-कारण और उपादन-कारण एक वही होता है। उसकी अपनी स्वीकृति, बस उसका मान भर लेना ही, पर्याप्त होता है। इसी में उसकी तपस्या, जप-ध्यान, पूजा-उपासना की पूर्णता होती है। सिद्ध सन्तों के जीवन में इसकी झलक हमें देखने को मिलती है।

घटना पुरानी है। परमसिद्ध अनन्त श्री विभूषित ब्रह्मर्षि योगीराज पूज्य देवरहा बाबा तब देवरिया में ही रहते थे। बाबा मंच पर ही बिराजते। उसी दौरान बैसाख-जेठ की सुबह एक युवा विरक्त शिष्य बाबा के दर्शन के लिए पहुँचे। बाबा ने उन्हें देखा। लेकिन वह निकट आते और संवाद होता, उसके पहले ही, बाबा कुटिया में चले गए। युवा बैरागी की स्थिति ऐसी कि अब बिना दर्शन जाए तो, गुरुदेव की अवहेलना और यदि बाबा को दर्शन देने के लिए पुकारे तो अमर्यादा। इसी दुविधा में तेज चिलचिलाती धूप, भट्‌टी सी तपती बालू और गर्म हवा को सहते हुए नंगे बदन कौपीनवन्त खड़ा रहा युवा शिष्य। पाँच मिनट बीते, 10 मिनट बीते, आधा घंटा, एक घंटा और फिर अगला घंटा ऐसे ही समय बीतने लगा। असह्य धूप, गरमी, भूख-प्यास के बीच शिष्य कोई पाँच घंटे तक वहाँ खड़ा रहा।

दोपहर लगभग 4 बजे कुटिया से निकल बाबा ने युवा साधु को निहारते हुए इतना भर कहा, “बचवा …! धूनी नहीं तपता है क्या? जा …जा… अब तू धूनी तप। किसी साधु से नियम सीख। और धूनी तप। ‘बच्चा, अब जा बच्चा।”’ यह सुनना भर था कि शिष्य के नेत्र अनुग्रह और प्रेमाश्रु से भर गए। इसके बाद न कुछ कहा गया और न कुछ सुना गया। शिष्य दण्डवत् कर अपने स्थान पर पहुँच गया और पंचाग्नि के विविध क्रम के अनुसार प्रत्येक वर्ष वसन्त पंचमी से आरम्भ कर गंगदशहरा पर्यन्त चलने वाली विधि से धूनी तपने लगा।

बाबा के इन शिष्य का गुरु प्रदत्त नाम था श्री सुदर्शनदास त्यागी। परन्तु साधु समाज में आप मौनीजी के नाम से जाने जाते तथा भक्तजन और शिष्य मुनिमहाराज के सम्बोधन से पुकारते रहे। उज्जैन के पास घट्टिया तथा घोसला के बीच लाऊखेड़ी नामक बजरंग स्थान सघन वट की छाया में अवस्थित है। वहाँ कई वर्ष मौनी जी ने तप किया। सम्भवतः 1956 के बाद कस्बा महिदपुर में पुण्य सलिला क्षिप्रा नदी के तट स्थित बजरंग स्थान मारुति मन्दिर गंगावाड़ी में, महाराज जी ने सुदीर्घ काल तक साधन भजन किया।

मुनि महाराज देवरहा बाबा से बहुत कम मिलते। वे तो बस आज्ञा ले आते और तदनुरूप तप-साधना में लग जाते। महाराज जी के जीवनका एक और अद्भुत प्रसंग है। एक बार महाराज जी बाबा का दर्शन करने पहुँचे। उन्हें देखकर देवरहा बाबा बोले, “बचवा! अब तू मौन हो जा।” मुनि महाराज जी ने सुना और उसी क्षण से आज्ञा भीतर उतर गई। आज्ञा गुरुणां हि अविचारणीया। अर्थात् गुरु की आज्ञा बिना विचारे ही मान लेनी चाहिए। वह कोई 34 साल तक इसी रहनी से रहे। फिर किसी समय प्रयाग कुम्भ में बाबा ने महाराज को आज्ञा दी, “बचवा, अब तू बोल।” आज्ञा मानकर मुनि महाराज बोलने का प्रयास करने लगे, तो अवरुद्ध कंठ से कोई स्वर ही नहीं फूटा। किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था! बोलने के प्रयास में आँखों से आँसू झरने लगे। बड़ी कठिनाई से कंठ से कुछ अस्फुट स्वर प्रकट हुए। तब बाबा ने आदेश दिया, “जा बच्चा जा। बच्चा ,अब से बोला कर।”  धीरे-धीरे फिर महाराज जी की वाणी लौटी।

इस प्रसंग से हम  समझ सकते हैं कि यह श्रद्धा की कैसी ऊँची स्थिति है। जहाँ आनुगत्य और उसकी पूर्णता यानी समग्र शरणागति में कैसा गुम्फित रहता है। यहाँ साधक के जो लक्षण घटित होते हैं, वह कहने भर के होते हैं। वस्तुत: साधक का सिद्धत्व घटित हो गया होता है। अचिंत्य समर्पण से उसका गुरु तत्व से तादात्म्य पूर्ण हो चुका होता है। 

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(नोट : समीर #अपनीडिजिटलडायरी की स्थापना से ही साथ जुड़े सुधी-सदस्यों में से एक हैं। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। सनातन धर्म, संस्कृति, परम्परा तथा वैश्विक मसलों पर अक्सर श्रृंखलाबद्ध लेख भी लिखते हैं।) 

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